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कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १६१ सुख-शान्ति आदि प्रसंगों पर हर्ष होता है। जैसे-किसी के द्वारा किसी वस्त का अपहरण कर लिये जाने पर चित्त भी उस वस्तु के साथ बंधा हुआ उसके पीछे-पीछे चलता है, यही भावबन्ध की उत्पत्ति का कारण है।
द्रव्यबन्ध और भावबन्ध के दो-दो प्रकार द्रव्यबन्ध दो प्रकार का होता है-पुद्गल का पुद्गल के साथ, तथा पुद्गल का जीव-प्रदेशों के साथ । इसी प्रकार भावबन्ध भी दो प्रकार का है-भाव का भाव के साथ, और भाव का द्रव्य के साथ । जीव के क्रोधादि भावों को देखकर भय आदि का होना, भाव का भाव के साथ बन्ध है। इसी प्रकार बाह्य दृश्यमान पदार्थों को देख कर उनके प्रति हर्ष-शोक आदि का होना दूसरा बन्ध है। इसी प्रकार कर्मबन्ध के अन्य अनेकों भेद किये जा सकते हैं।
ज्ञानी और अज्ञानी के देखने के दो ढंग : इसी पर से अबन्ध और बन्ध एक व्यक्ति अपने छोटे लड़के के साथ मार्केट में शीशा खरीदने जाता है। यदि बालक के कद का (आदमकद) शीशा हो तो अबोध बालक भी शीशे को देखता है,
और उसका समझदार पिता भी। परन्तु दोनों के देखने में अन्तर पड़ जाता है। समझदार पिता शीशा खरीदते समय यह देखता है कि शीशे की बनावट व फिनिश कैसी है?. स्वच्छता (पालिश) कैसी है? कहीं दाग तो नहीं है? परन्तु छोटा बालक शीशे को न देख कर उस पर प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तुएँ तथा आकृतियाँ देखता है। एक मोटर गई, एक रिक्शा आया। वह आदमी आया। मेरा चेहरा कितना सुन्दर है? इत्यादि बातें देखता है। बड़ा आदमी शीशे को देखता है, आकृतियों आदि पर उसकी दृष्टि कतई नहीं जाती। जब कि बालक को शीशे से कोई मतलब नहीं, वह शीशे को देखता हुआ भी नहीं देख पाता। उसे केवल आकृतियाँ ही दिखाई देती हैं। . इसी प्रकार जो ज्ञानी है, वह दर्पणरूप ज्ञान को देखता है, अपने ज्ञानरूप दर्पण में प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तुओं या आकृतियों (ज्ञेय) को नहीं देखता। परन्तु अज्ञानी अपने ज्ञान में जो भी प्रतिबिम्बित होता है, उसे ही देखता है, ज्ञानरूप दर्पण नहीं। अर्थात् वह ज्ञेयरूप चीजों को देखता है, ज्ञान को नहीं। अतः उसका ज्ञान अमूर्तिक होते हुए भी उन चीजों के आश्रय से मूर्तिक हो जाता है। इस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति ज्ञानरूप दर्पण को तो भूल जाता है, दर्पण में उठने वाले प्रतिबिम्ब के साथ तन्मय हो जाता है, अर्थात्-ज्ञेयरूप बन जाता है। स्वयं को जानने वाले को तो वह भूल गया; दूसरे शब्दों में, जिसमें प्रतिबिम्बित होता है, उस ज्ञान को तो भूल गया और ज्ञेय रूप बन बैठा; द्रव्य से नहीं भाव से।२
१. कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी ) से पृ. ८० २. मुक्ति के ये क्षण से भावांश ग्रहण, पृ. ९६-९७
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