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१४८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पीछे उसके मन में किसी प्रकार की मजबूत श्रद्धा या स्थिरता न हो, उसके प्रति अनुराग न हो, ऐसी स्थिति में वह जीव जो पुण्यबन्ध करता है, वह पुण्यबन्ध बहुत ही शिथिल अर्थात् स्पृष्ट रूप होता है। किन्तु धर्मक्रिया कुछ दिलचस्पी के साथ करता : है, उस धर्मक्रिया के प्रति उसके मन में भक्ति या बहुमान है, ऐसी स्थिति में जो पुण्यबन्ध होता है, वह बद्धरूप होता है। इससे आगे बढ़कर एक व्यक्ति बहुत ही रसपूर्वक एवं उच्च शुभ अध्यवसायों से, तथा अत्यन्त भक्ति और बहुमान के साथ धर्मक्रिया करता है। ऐसी स्थिति में जो पुण्यबन्ध होगा, वह बहुत ही सुदृढ़ होगा, अर्थात्-वह निधत्तरूप पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होगा। परन्तु इससे भी विशेष तीव्रतम शुभ परिणामों से, अत्यन्त रस और उल्लास के साथ, बहुत ही हार्दिक भक्ति और बहुमान से, सिद्धान्तानुसार धर्मक्रिया की जाती है तो पुण्यानुबन्धी पुण्य भी अत्यन्त सुदृढ़ रूप से बंधता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में निकाचित पुण्यबन्ध कहा जाता
पुण्यानुबन्धी पुण्य कथंचित् उपादेय : क्यों और कैसे ?
पुण्यानुबन्धी पुण्य आत्मा को इतना दुःखी नहीं करता, और न ही वह धर्म का विघातक है। बल्कि वह कई प्रकार से धर्म में सहायक भी बनता है। इसीलिए हमने 'कर्मविज्ञान के आम्नव और संवर' नामक छठे खण्ड में पुण्य को विशेषतः सम्यग्दृष्टि के और पुण्यानुबन्धी पुण्य को कथंचित् उपादेय प्ररूपित किया है।३ , स्पृष्टरूप से अशुभ कर्मबन्ध व शुभकर्मबन्ध
इस विषय में एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि जिस क्रिया से , कर्मबन्ध हुआ हो, उससे विपरीत क्रिया करने से वह कर्म (पुण्यरूप हो चाहे पापरूप) छूट जाता है। जैसे-किसी के पापक्रिया करने से अशुभ कर्मबन्ध हुआ, वह उसके विपरीत धर्मक्रिया करने से छूट जाता है, इसी प्रकार धर्मक्रिया करने से हुआ शुभबन्ध आसक्तिपूर्वक भोगादि क्रिया करने से छूट जाता है। कोई व्यक्ति दया, दान, सामायिक, प्रतिक्रमण, तप, जप, शील-पालन, स्वाध्याय, व्याख्यान-श्रवण आदि तमाम धर्म क्रियाएँ करता है, परन्तु करता है, बिना मन से, बिना रस से, केवल दिखावे के लिए या औपचारिक रूप से। अर्थात्-वह धर्मस्थान में आया, और किसी ने कह दिया-अमुक धर्मक्रिया कर लो, इसलिए बिना मन से, देखा-देखी करता है, तो उस धर्मक्रिया से उसे स्पृष्ट रूप से पुण्यबन्ध होगा। इसके विपरीत किसी व्यक्ति ने पापक्रिया की, परन्तु लाचारी से, विवश होकर, किसी के दबाव या भय से, बिना मन १. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी) पृ. २५ २. वही पृ. २६ ३. देखें-पुण्य कब और कहाँ तक उपादेय एवं हेय ?'-शीर्षक निबन्ध
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