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कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ १४९ से खेदपूर्वक निरुपाय होकर अमुक पाप-क्रिया उसे करनी पड़ी। ऐसी स्थिति में उसे पापबन्ध होगा, वह स्पृष्टरूप होगा।१
बन्ध क्रिया से होता है। क्रिया शरीर से ही होती है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्रिया तन से भी होती है, मन से भी होती है, वचन से भी होती है। इसीलिए कर्मबन्ध मानसिक विचारों से भी होता है और काया तथा वाणी से भी होता है।
पुण्यानुबन्धी पुण्य के कारणरूप धर्मक्रिया से पुण्यबन्ध और निर्जरा भी कोई यह कहे कि पुण्यानुबन्धी पुण्य भी कर्म है, और उसका कारण धर्मक्रिया है, अतः कर्म तोड़ने की भावना वाले को धर्मक्रिया क्यों करनी चाहिए ? परन्तु ऐसा कथन करने वाले सिद्धान्त-विरुद्ध प्ररूपणा करते हैं। वे जैन सिद्धान्त के अनेकान्तमय रहस्य को समझे ही नहीं हैं। कोई भी जीव धर्मक्रिया किये बिना मुक्ति में नहीं जा सकता। चाहे वह मन से धर्मध्यान की क्रिया करे, चाहे वाणी से स्वाध्याय आदि धर्मक्रिया करे, अथवा काया. से वन्दनादि क्रिया करे। शुद्धभाव से धर्मक्रिया करने से भी शास्त्रकारों ने 'धर्म' की प्ररूपणा की है। यह ठीक है कि धर्मक्रिया पुण्य का बन्ध कराती है, परन्तु साथ ही वह निर्जरा अथवा संवररूप धर्म की कारण भी बनती हैं। ___ व्रत:नियम-पालन, चारित्र-पालन, बाह्य तप, जप, भगवद्भक्ति, स्तुति आदि क्रियाओं में मन, वचन और काया के योग की प्रवृत्ति होती है, इसलिए पुण्यानुबन्धी पुण्य का ‘बन्ध होता है। दशवैकालिक सूत्र में यतना से चलने, उठने, बैठने, सोने, खाने-पीने, बोलने आदि क्रियाओं में पापकर्म के बन्ध का निषेध किया है, उससे स्पष्ट ध्वनित होता है, उन क्रियाओं के करने से पुण्यकर्म का बन्ध होता है, साथ ही उन क्रियाओं को करते-करते ढंढणमुनि की तरह उत्कृष्ट शुद्ध परिणाम आएँ तो कर्म-निर्जरा भी हो सकती है। कोई यह समझे कि आज का आज ही शुभ कर्मों के बन्ध को भी टाल दूं, ऐसा होना प्रायः शक्य नहीं है, क्योंकि धर्मक्रिया उत्कट भावों द्वारा करने से पुण्यबंध कम और निर्जरा अधिक होती है। ऐसी कोई धर्मक्रिया नहीं होती, जिससे केवल निर्जरा ही हो, पुण्यबन्ध न हो।२ ।
चौदहवें गुणस्थान की प्राप्ति के पूर्व तक धर्मक्रिया उपादेय : क्यों और कैसे ? __ जैसे कोई व्यक्ति अपने मकान से कड़ा कचरा निकालता है, उस समय हवा से उड़ कर थोड़ा कचरा आ ही जाता है, इसी प्रकार कोई छमस्थ व्यक्ति अपनी आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी कचरे को सिद्धान्तानुसार धर्मक्रिया रूपी बुहारी से निकालने के लिए उद्यत होता है, प्रयत्नशील होता है, उस समय सरागतावश, पूर्वसंस्कारवश, मन्दकषायवश थोड़ा पुण्यबन्ध तो होता ही है, परन्तु निर्जरा अधिक होती है। मगर जो बन्ध होता है, वह पुण्यानुबन्धी पुण्य का होता है। ऐसे पुण्य का उदय धर्माचरण १. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी) पृ. २६, २७ । २. वही, पृ. २७ ।
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