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कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ १४७
अनिकाचित कर्मबन्ध में शुभ अध्यवसायों द्वारा परिवर्तन सम्भव है, परन्तु निकाचित कर्मबन्ध में कोई भी परिवर्तन शक्य नहीं है । '
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दोनों प्रकार के कर्म चारों अवस्थाओं के रूप में बँधते हैं कर्म के मुख्यतया दो भेद हैं- शुभकर्म और अशुभकर्म। दोनों प्रकार के कर्म स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित, इन चारों दशाओं (डिग्रियों) में बँधते हैं।
अशुभकर्मबन्ध की चारों अवस्थाओं पर विचार
पहले हम अशुभकर्मों के बन्ध की इन चारों अवस्थाओं पर विचार करते हैं। जब आत्मा में राग-द्वेष या कषाय के परिणाम मन्द होते हैं, तब कर्म का बन्ध स्पृष्ट रूप से होता है। यह बन्ध शिथिल होता है। इस प्रकार का अशुभ स्पृष्ट कर्मबन्ध आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप) एवं गर्हा से नष्ट हो जाता है।
स्पृष्ट की अपेक्षा 'बद्ध' अशुभकर्मबन्ध अधिक सुदृढ़ होता है। क्योंकि इसमें राग-द्वेष के परिणाम अधिक होते हैं। इसको विशेष आलोचनादि क्रिया से नष्ट किया जा सकता है। अशुभकर्मबन्ध का तीसरा प्रकार है - निधत्त कर्म के विषय का। जिन क्रियाओं में कषायों की परिणति और रस अधिक हो, उनसे निधत्त रूप से कर्मबन्ध होता है। ऐसे बद्धकर्म उत्कट तप और प्रायश्चित्त से क्षय होते हैं। उपर्युक्त तीनों प्रकार के कर्मबन्धों में बताये हुए रागद्वेषादि के अध्यवसायों से भी तीव्र अध्यवसाय और तीव्र रस पूर्वक जो क्रियाएँ की जाती हैं और करने के पश्चात् जिनके विषय में कोई खेद या पश्चात्ताप न हो, ऐसी स्थिति में कर्म अत्यन्त तीव्र रूप से बँधते हैं, जिन्हें उसी रूप में भोगना ही पड़ता है। अशुभकर्मों का निकाचित बन्ध हो तो जीव को बहुत प्रकार की यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। ऐसे कर्म हँसते-हँसते बाँधे जाते हैं, परन्तु वे रोते-रोते भी नहीं छूटते। जैनधर्म अंगीकार करने से पूर्व मगध सम्राट श्रेणिकनृप ने एक हरिणी का शिकार किया था। हरिणी गर्भवती थी। राजा श्रेणिक के बाण से दोनों के प्राणपखेरू उड़ गए। उस समय राजा श्रेणिक मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले - "मैं कितना पराक्रमी हूँ। मैं कितना बलवान् हूँ कि एक ही बाण से दोनों जीवों को बींध डाला ।” ऐसे क्रूर तीव्र अध्यवसाय से उन्हें कर्म का निकाचित बंध हुआ, जिसके फलभोग के लिए उन्हें नरकयात्रा करनी पड़ी। निकाचित कर्म प्रदेश और विपाक द्वारा अवश्य फल प्रदान करता है। कुछ आचार्यों का मत है कि ऐसे कर्मों का क्षय अत्यन्त तीव्रतम और अत्यन्त शुद्ध अध्यवसाय हो तो कदाचित् सम्भव है। २
शुभकर्मबन्ध की चारों अवस्थाओं पर विचार
शुभकर्म का अर्थ है- पुण्य । जब आत्मा किसी भी प्रकार की धर्मक्रिया करता है, परन्तु करता है बिना मन से, जैसे-तैसे या लोक दिखावे के लिए; उस धर्म-क्रिया के
१. आत्मतत्त्व विचार (विजयलक्ष्मणसूरीजी), पृ. ३१०
२. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी), पृ. २४-२५
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