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कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ १४५ है-निकाचित। जो तपश्चर्या, प्रायश्चित्त आदि से भी नहीं छूटता, उसका पूर्ण फल भोगें बिना छुटकारा नहीं होता।
आत्मा के रागद्वेषादि युक्त परिणामों की तरतमता से कर्मबन्ध में तरतमता वस्तुतः आत्मा अपने आप में शुद्ध है, कर्ममलरहित है, ज्ञानमय है, किन्तु रागद्वेषादि की तरतमता होती है। राग-द्वेषादि को लेकर ही आत्मा के परिणाम मन्दतम, मन्द, क्लिष्ट और क्लिष्टतम होते हैं, उस पर से बन्ध की डिग्रियों-अवस्थाओं में अन्तर पड़ता है। कोई मनुष्य बालू के ढेर पर बैठता है तो उसके शरीर पर रजकण लगते जरूर हैं, उनका मामूली सा मैल चिपकता है, जरा-सा शरीर को झटकाने से वे मैल के रजकण गिर जाते हैं। यदि शरीर पर तेल लगाकर धूल पर बैठता है तो मैलसहित रजकण उससे भी सुदृढ़ रूप से चिपकते हैं, और उस मैल को साफ करने के लिए वह साबुन और पानी का प्रयोग करता है तभी मैल दूर हो पाता है। यही बात बद्ध कर्मबन्ध के विषय में कही जा सकती है। बद्धरूप से बँधा हुआ कर्म विशेष प्रयत्न से छूटता है। किसी के शरीर पर अत्यधिक तेल लगाने से उस पर धूल के रजकण चिपकते हैं, और मैल इतना गाढ़ा जम जाता है कि वह साबुन और पानी से भी साफ नहीं होता। उसके लिए उस मैले वस्त्र को गर्म पानी में डुबो कर उसमें खार डालना पड़ता है। इसी प्रकार का कर्मबन्ध है-निधत्त। आत्मा पर रागद्वेष की इतनी अधिक चिकनाई हो जाती है कि अधिक गाढ़रूप से बद्ध कर्मबन्ध शीघ्र नहीं छूटता। उसके लिए तीव्रतम पश्चात्ताप, उत्कट तप और तीव्र प्रायश्चित्त, के साथ शुद्ध परिणामों की धारा होती है, तभी उस कर्मबन्ध से छुटकारा होता है। परन्तु जिस शरीर पर इतना अधिक मैल गाढ़रूप से चिपककर तद्रूप हो गया हो, वह मैल चाहे जितना धोने, रगड़ने पर भी छूटता नहीं। इसी प्रकार का कर्मबन्ध है-निकाचित। निकाचित रूप से बँधा हुआ कर्मबन्ध अपना फल भुगवाए बिना नहीं छूटता। आत्मा जब कषाय, राग-द्वेषादि के तीव्रतम परिणामों से कोई प्रवृत्ति करता है, तब निकाचित कर्मबन्ध होता है।
शिथिलता और दृढ़ता से कर्मश्लेष होने के कारण - संसार में हम देखते हैं कि जिस वस्तु में चिकनाई अधिक होती है, उस पर दूसरी वस्तु उतनी ही अधिक मजबूती से चिपकती है। गोंद से डाक टिकट चिपकाने पर इतनी सुदृढ़ता से चिपक जाती है कि वह फट भले जाय, उखड़ती नहीं है। परन्तु उसी गोंद में पानी डाल कर फिर डाक टिकट चिपकाने पर नहीं चिपकेगी, क्योंकि उसमें चेप कम हो गया है। इसी प्रकार आत्मा में कषायरूपी स्निग्धता जितनी अधिक होगी, उतनी ही दृढ़ता से कर्म चिपकेगा, इसके विपरीत कषाय की स्निग्धता जितनी कम होगी, उतना ही शिथिल कर्म का श्लेष (बन्ध) होगा।२ १. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी) पृ. १९ २. वही, पृ. २३
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