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१५६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अपनी नहीं, पराई है), उस पर राग, मोह, आसक्ति, करता है, इसी प्रकार किसी भी पर-पदार्थ (आत्मा से भिन्न पदार्थ) पर द्वेष, घृणा या दुर्भाव करता है। सजीव या निर्जीव पर-पदार्थों पर कोई राग, द्वेष, कषाय या आसक्तिभाव करता है, वह भी बन्धन का पात्र है। इसी प्रकार जैसे-इन्द्रियों, हाथ, पैर या मन, वचन, काय से आत्मा जब किसी पर-पदार्थ को पकड़ता है, कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है, वह द्रव्यबन्ध है। राग-द्वेष या कषाय के परिणाम या भाव से किसी चीज को पकड़ना भावबन्ध है। अर्थात्-किसी पर-पदार्थ को हाथ से उठा लेना बन्ध है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ भाव से किसी सजीव-निर्जीव परपदार्थ को पकड़ लेना भी बन्ध है। केवल वस्तु को सहजभाव से पकड़ने या स्पर्श करने से बंध नहीं होता . .
केवल वस्तु को निरपेक्ष और तटस्थरूप से पकड़ने पर बन्ध (द्रव्यबन्ध) नहीं होता, परन्तु उसे पकड़ने के साथ जब कोई प्रियता-अप्रियता या राग-द्वेष का भाव, अध्यवसाय या परिणाम आता है, तब बन्ध होता है। किसी वस्तु को केवल पकड़ने, स्पर्श करने मात्र से यदि बन्ध हो जाता है, तब तो वीतरागी मुनियों को भी बन्ध होने लगेगा; क्योंकि वे भी चलते हैं तो जमीन का स्पर्श होता है, जीना चढ़ते हैं तो डंडे को पकड़ना पड़ता है, लकड़ी का भी सहारा लेना पड़ता है, चटाई या पट्टे पर बैठते हैं, तो उसका भी स्पर्श होता है। फिर आँखों से कई वस्तुएँ देखते हैं, तो उनका भी स्पर्श होता है, कानों में मधुर-कटु शब्द पड़ते हैं, तो उनका भी स्पर्श होता है, नाक में बदबू या खुशबू आती है, उसका भी स्पर्श होता है, दर्शनार्थ आने वाले भाई-बहनों के रूप का भी आँखों से स्पर्श होता है। कोई भी खाद्य या पेय पदार्थ खाते-पीते हैं तो उसके स्वाद का भी जीभ को स्पर्श होता है। इस प्रकार किसी चीज को पकड़ने या स्पर्श करने-ग्रहण करने या इस्तेमाल करने मात्र से यदि कर्मबन्ध हो जाएगा, तब तो कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक कि वीतरागी मुनिवर भी कर्मबन्ध से छूट नहीं सकेंगे, पद-पद पर पल-पल में कर्मबन्ध होता रहेगा। श्वासोच्छ्वास का, वायु का तथा सूर्य-किरणों का, धूप एवं छाया का स्पर्श तो क्षण-क्षण में होता है। उससे तो जीवित मानव किसी भी तरह बच नहीं सकता। इसीलिए समयसार में कहा गया है केवल क्रिया से या वस्तु से बन्ध नहीं होता, बन्ध होता है-उक्त वस्तु के प्रति या मन-वचन-काया की क्रिया के साथ किये जाने वाले भाव से, अध्यवसाय से या परिणाम से।२ क्रिया से कर्म आते अवश्य हैं, परन्तु वे अबन्धक होते हैं, उनके साथ कषाय या रागद्वेष न हो तो उनका रसबन्ध एवं स्थितिबन्ध नहीं होता। दो प्रकार की क्रिया से दो प्रकार का बन्ध
क्रिया दो प्रकार की होती है-हलन-चलनरूप क्रिया और भावरूप क्रिया। जब हलन-चलन या परिस्पन्दनरूप क्रिया होती है, तभी उसके साथ रागद्वेष या कषाय का १. मुक्ति के ये क्षण (ब्र. कु. कौशल) से भावांशग्रहण, पृ. ६३ २. ण य वत्थुदो बंधो,
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