________________
कर्मबन्ध के मुख्य कारण एक अनुचिन्तन १२९ है। विरति का अर्थ व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, नियम या संयम का स्वीकार तथा आचरण करना है। मनुष्य में एक प्रकार की आकांक्षा, लालसा, लिप्सा या सांसारिक पदार्थों को येन-केन-प्रकारेण पाने की वृत्ति रहती है। उसके कारण वह पदार्थ में आसक्त, अनुरक्त एवं लिप्त होता है। वह उसे प्राप्त करना और भोगना चाहता है। सांसारिक पदार्थों तथा पंचेन्द्रिय और मन के विषयों की प्राप्ति में हिंसा, असत्य, बेईमानी, छल-कपट, अहंकार, परिग्रह-वृत्ति आदि पापकर्मों का बन्ध होता रहता है । पदार्थ और धनादि के प्रति या इष्ट-अनिष्ट के प्रति राग-द्वेष के कारण दुःख, संक्लेश, कष्ट, संघर्ष, संकट आदि को - दुष्परिणामों को जानता हुआ भी जीव इनसे विरत, अनासक्त या निवृत्त नहीं हो पाता । '
बारह प्रकार की अविरति
=
अतः पाँचों इन्द्रियों और मन इन छह का विषय सुखों की तल्लीनतावश तज्जनित दोषों से विरत न होना, उनका संवर न करना, यह ६ प्रकार की अविरति है। इसी प्रकार पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन षट्कायिक जीवों से सम्बन्धित हिंसादि दोषों से विरत संवृत न होना भी ६ प्रकार की अविरति है। इस प्रकार ६ + ६ १२ प्रकार की अविरति हुई। इस बारह प्रकार की अविरति में मानसिक, वाचिक एवं कायिक सर्वदोषों का समावेश हो जाता है। यद्यपि अविरति में हिंसा से विरति के अभाव का स्वर मुख्य है, तथापि मृषावाद आदि दोषों का समावेश हिंसा में हो जाने से हिंसादि सभी दोषों से विरत होने का अभाव अविरति नामक बन्धहेतु में समाविष्ट है। इन दोषों या शुभाशुभ भावों से किसी प्रकार का विरति भाव धारण न किया जाए तो कर्मबन्ध होता ही रहता है । अविरति के कारण होने वाले अनिष्ट परिणामों को जानता हुआ भी वह उन्हें ममता-मूर्च्छावश छोड़ नहीं सकता। जीने की लालसा और मृत्यु की भीति भी मन को इन दोषों से विरत नहीं होने देती । सामाजिक, राष्ट्रीय एवं पारिवारिक जीवन में परस्पर संघर्ष, नोक-झोंक, छीना-झपटी, स्वार्थवृत्ति का कारण भी अविरति की मानसिक अवस्था है।२
मिथ्यात्व से विरत होने पर भी तदनुसार आचरण में बाधक : अविरति मिथ्यात्व दशा से निवृत्त होने पर सत्य के प्रति सभान पक्षपात हृदय में जागने पर भी अविरतिदशा होने से सत्य ( व्रतादि) का आचरण नहीं हो पाता क्योंकि सत्य का पक्षपात हृदय की वस्तु है, जबकि सत्य का आचरण जीवन की वस्तु है। मिथ्यात्व
१. (क) जैनयोग से भावांशग्रहण, पृ. ३२ (ख) आत्मतत्व विचार पृ. २८५-२८६ २. (क) जैनदृष्टिए कर्म से भावग्रहण, पृ ३५ (ख) जैनयोग से भावांशग्रहण, पृ. ३२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org