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बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय १३५ है। योग और कषाय ये दोनों ही उन बन्यांगों के पृथक्-पृथक् कारण हैं। इसीलिए कर्मग्रन्थ आदि में कहा गया है-प्रकृति और प्रदेश बन्धांगों का निर्माण योग से होता है, जबकि स्थिति और अनुभागरूप बन्धांगों का निर्माण होता है-कषाय से। इस प्रकार एक ही कर्म के बन्ध में उत्पन्न होने वाले पूर्वोक्त चारों बन्धांगों के मुख्य कारणों का विश्लेषण करने की अपेक्षा से संक्षेप दृष्टि से योग और कषाय, इन दो बन्ध-हेतुओं का कथन किया गया है।'
योग के द्वारा कर्मों का आकर्षण, कषाय के द्वारा बन्ध जैनकर्म-विज्ञान में जीव की ओर कर्म-परमाणुओं को आकृष्ट करने का कार्य योग-मानसिक याचिक कायिक प्रवृत्ति का बताया गया है। अर्थात्-जीव की प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति के साथ योग के द्वारा कर्मपरमाणु जीव (आत्मा) की ओर आकृष्ट होते हैं, तत्पश्चात् आत्मा के राग, द्वेष, मोह आदि वैभाविक भावों का, जिन्हें जैनकर्मविज्ञान में कषाय कहा गया है, निमित्त पाकर आत्मा से बंध जाते है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मपरमाणुओं को आत्मा तक लाने का कार्य योग-अर्थात्जीव की कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया या प्रवृत्ति करती है, तथा उसके साथ बन्ध कराने का कार्य कषाय यानी आत्मा के रागद्वेषादि भाव (परिणाम) करते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा की योगशक्ति और कषाय, ये दोनों मिल कर प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धांगों के कारण हैं।२ इसीलिए षड्दर्शन-समुच्चय (वृत्ति) में कहा गया है-योग के निमित्त से, कषाययुक्त आत्मा का कर्मवर्गणा के पुद्गलों के साथ विशेष प्रकार का संश्लेष होना-चिपक जाना कर्मबन्ध है।३ इसी कारण समवायांग सूत्र में कारण में कार्य का उपचार करते हुए ये दो प्रकार के बन्ध कहे गए हैं-योगबन्ध और कषायबंध।४
कषाययुक्त सांसारिक जीव के योग द्वारा ग्रहण और आश्लेष बंध है - कर्मविज्ञान के मर्मज्ञों ने यह स्पष्ट बता दिया है कि सांसारिक जीव के साथ प्रवाहरूप से अनादिकाल से कर्म लगा हुआ है, क्योंकि जब तक वह राग-द्वेष से या कषाय से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक कषाययुक्त या रागद्वेषयुक्त जीव के साथ कर्मबन्ध का सिलसिला जारी रहता है। इसीलिए मूलाचार में इसी तथ्य के बारे में कहा गया है-"कषाययुक्त जीव योग के द्वारा कर्मयोग्य जिन पुद्गल-द्रव्यों को ग्रहण १. (क) जोगा पयडि-पएसा, ठिई-अणुभाग कसायओ कुणइ ।
(ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) से भावांशग्रहण, पृ. १९२-१९३ २. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (प. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री) से भाव ग्रहण, पृ. २०-२१ ३. योगनिमित्तः सकषायस्यात्मनः कर्म-वर्गणापुद्गलैः संश्लेष-विशेषो बन्धः।
__ -षड्दर्शन समुच्चय, वृ.४७ ४. दुविहो बंधे पण्णते, तं. जहा-जोगबंधे कसायबंधे य ।
• -समवायांग सम.२
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