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बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय १३७ योग का काम है, बाहर से कुछ लाना, कषाय का काम है- चिपका कर रखना प्रवृत्ति कहें चाहें योग कहें, वह बाहर से कुछ कर्मपुद्गलों की खींच कर लाता है, और वे पुद्गल आते हैं और जीव के साथ जुड़ जाते हैं। प्रवृत्ति या योग का कार्य इतना ही है। उसके पश्चात् भीतर में यदि चेतना की परिणतिरूपी दीवार में कषाय या रागादिरूपी चिकनाहट है तो वह बाहर से आने वाले कर्मयोग्यपुद्गलों को पकड़ लेगी । अर्थात् - चेतना की परिणतिरूपी वह दीवार बाहर से आए हुए पुद्गलों को बांध देती है, चिपका कर रखती है। निष्कर्ष यह है कि प्रवृत्ति (योग) का काम है - बाहर से कुछ लाना, आकर्षित करना और कषाय का काम है - उसे चिपका कर रखना । इसलिए योग और कषाय, ये दोनों कर्मबन्ध होने में कारण हैं।
चेतना की दीवार कषाय से चिकनी होगी तो कर्मरज अवश्य चिपकेगी
एक सूखी दीवार है, उस पर पानी या तेल की चिकनाहट नहीं है, तो उस पर फ्रैंकी हुई या उड़कर आती हुई धूल चिपकेगी नहीं, वह उससे टकरा कर थोड़ी ही देर में झड़ जाएगी या बिखर जाएगी। परन्तु यदि धूल गीली है तो उस दीवार पर थोड़ी देर टिकेगी, फिर स्वयं ही गिर जाएगी। यदि वह दीवार तेल आदि से स्निग्ध है, चिकनी है, तो वह धूल को पकड़ लेगी, चिपका लेगी। इसी प्रकार चेतना की दीवार सूखी है, उस पर कषाय की चिकनाहट नहीं है तो कर्मरज आकर स्पर्श करेगी, लेकिन तुरंत ही वह कर्मपुद्गलरूपी रज झड़ जाएगी, क्योंकि उसके टिकने का कोई कारण शेष नहीं है; लेकिन कषायरूपी चिकनाहट चेतना की दीवार पर होगी तो वहाँ कर्मरज अवश्य ही चिपकेगी, वह चिपका कर रखेगी । यही कर्मबन्ध का रहस्य 19
कर्मरूप ईंधन लाने का काम योग का, आग को भड़काने का काम है- कषाय का
ईंधन और आग का रूपक देकर भी कर्मविज्ञान - विशेषज्ञों ने कर्मबन्ध में योग और कषाय का महत्त्व समझाया है । तत्त्वार्थसूत्र में काया, वचन और मन की प्रवृत्ति को योग और उसी को आस्रव कहा गया है। २ आनव के द्वारा जो पुद्गल खींच कर लाया जाता है, वह है द्रव्यकर्म, और कषाय भावकर्म है। द्रव्यकर्म एक प्रकार का ईंधन है और भावकर्म - कषाय या रागद्वेष आग है। ईंधन इकट्ठा कर दिया जाए, किन्तु अग्नि प्रज्वलित न हो तो ईंधन कुछ भी नहीं कर सकेगा। ईंधन आग को तभी भड़काता है, जब कि आग जल रही हो। बुझी हुई अग्नि के लिए ईंधन बेकार है । केवल द्रव्यकर्म हो, किन्तु कषाय या राग-द्वेष न हो तो उस कर्म का टिकना असम्भव है। कर्म-पुद्गल भीतर आएँगे, वैसे ही चले जाएँगे, क्योंकि वहाँ कषायाग्नि शान्त है या नष्ट है। अतः संसारी जीवों के अन्तर् में कषाय या राग द्वेष की आग प्रज्वलित
- तत्त्वार्थसूत्र अ. ६, सू. १-२
१. जैनयोग से भाव - ग्रहण, पृ. ३८
२. कायवाङ् - मनः कर्म योगः । स आम्रवः ।
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