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१३६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) करता है, उनका आत्मप्रदेशों से चिपकना बंध समझना चाहिए।''१ तात्पर्य यह है कि संसारी जीव की प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया के पीछे राग-द्वेष या कषाय की प्रेरणा होती है। उससे कर्मवर्गणा के पुद्गल खिंचे चले आते हैं। फिर उन कर्मपुद्गलों को आत्मा के साथ बांधता है-कषाय। अर्थात्-प्रवृत्ति, क्रिया या त्रिविध योग से कर्मों का आकर्षण-आगमन होता है, और कषाय उन (कर्मपुद्गलों) को आत्मा से बांध देता है। संसारी जीव की प्रत्येक प्रवृत्ति कषाययुक्त होने से कर्मबन्धकारक ___ सर्वांगपूर्ण कर्मबन्ध में योग और कषाय दोनों का हाथ है। प्रत्येक वैभाविक प्रवृत्ति, चाहे वह मानसिक हो, वाचिक हो या कायिक कर्मबन्ध का मूल द्वार है। संसारस्थ जीव की कोई भी प्रवृत्ति ऐसी नहीं है, जो बन्धन के द्वार न खोलती हो। बन्धन के द्वार पर दस्तक देने वाली त्रिविध प्रवृत्ति को योग कहते हैं। त्रिविध योग के द्वारा कर्म आकर्षित होते हैं, आते हैं, और फिर रागादि भाव या कषायभाव की चिकनाहट के कारण वे कर्म आत्मा से चिपक जाते हैं।
कर्मवैज्ञानिकों ने एक रूपक द्वारा कर्मबन्ध की प्रक्रिया में योग और कषाय का महत्त्व बताते हुए कहा है-“जिस प्रकार दीपक अपनी उष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लौ) के रूप में परिणत कर लेता है, वैसे ही यह आत्मा-रूपी दीपक अपने रागादि भाव या कषायभाव रूपी ऊष्मा (प्रज्वलित अग्नि) के कारण क्रियाओं-प्रवृत्तियोंरूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणुरूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने कर्मशरीर रूपी ली में बदल देता है।"२ जहाँ वैभाविक प्रवृत्ति होती है, वहाँ कर्मबन्ध अवश्य होता है। ___ यही बात हम प्रवृत्ति और कषाय के विषय में कह सकते हैं। जानना-देखना तथा आत्मा के ज्ञान, दर्शन, अव्याबाध और शक्तिरूप गुणों तथा आत्मभावों में रमण करना स्वाभाविक प्रवृत्ति है, ये निरवद्य योग हैं। परन्तु जहाँ प्रवृत्ति स्वाभाविक नहीं है, वैभाविक है, मन, वचन, काया से प्रेरित होकर होने वाली क्रिया है, वहाँ वह कर्मबन्धकारिणी अवश्य होगी; क्योंकि उस प्रवृत्ति के साथ पहले से ही कुछ न कुछ बाहर से आता है। जो बाहर से आता है, वह आत्मा का वास्तविक स्वभाव नहीं होता, वह विजातीय भाव (फॉरेन मैटर-Foreign Matter)-विभाव होता है। उसके आने पर निश्चित ही कर्मबन्ध होता है। अतएव कहा गया है-सांसारिक प्राणी की प्रवृत्ति चाहे शरीर की हो, मन की हो या वचन की हो, उससे बन्धन होगा। १. जीवो कसायजुत्तो, जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । गेण्हइ पोग्गलदव्ये, बंधो सो होदि णायव्यो ।
-मूलाचार १२-१८३ २. (क) धवला पु.१५, सू.३४
(ख) तत्त्वानुशासन ६ (ग) तत्त्वार्थसूत्र टीका भा. १ पृ. ३४३
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