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कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १२७ से, मिथ्या भ्रमणा से। तत्पश्चात् सांसारिक विषय-भोगों का, हिंसादि विकारों का बेखटके उपभोग करने से कर्म चिपकते हैं। अर्थात्-इन विषयभोगों के लिए अमर्याद रूप से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह का आसक्तिपूर्वक आचरण करने से कर्मबन्ध होता है।' ___ इसी प्रकार आत्मा प्रमाद से, गफलत और असावधानी से अंधाधुंध प्रवृत्ति करता रहता है, तब भी कर्मों का बन्ध होता है। चौथे नम्बर में आत्मा में प्रादुर्भूत क्रोध, मान, माया और लोभ, इस कषाय-चतुष्टय से या राग-द्वेष से कर्म आत्मा में लगते हैं
और यथाकाल स्थित रहते हैं, फिर अपना फल भुगवा कर ही आत्मा से छूटते हैं। इन चारों के साथ मन, वचन और काया की प्रवृत्ति (योग) जुड़ जाती है, तब आत्मा कर्म से आबद्ध-श्लिष्ट होती है।
- पाँचों बन्ध-हेतुओं का कार्य क्या है ? आशय यह है कि आत्मा इन पाँच साधनों से कर्मपुद्गलों को आकर्षित करता है, ग्रहण करता है, और वह कर्मपुद्गल स्कन्ध आत्मा के प्रदेशों के साथ श्लिष्ट हो जाता है, इसी का नाम बन्ध है।
आशय यह है कि ये चारों या पाँचों मिलकर आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आवृत, कुण्टित और सुषुप्त कर देते हैं। मिथ्यात्व आत्मा के ज्ञान और दर्शन गुणों को आवृत
और कुण्ठित कर देता है; अविरति आत्मा के सम्यक् चारित्रिक गुण या निराकुलतारूप आत्मिक सुख (आनन्द) रूप गुण को आवृत और मूर्छित कर देती है, प्रमाद आत्मा के ज्ञानादि गुणों को कार्यरूप में परिणत नहीं होने देता, वह आत्मा को असावधान, बेसुध या अजागृत करके उसकी ज्ञानादि शक्तियों को सुषुप्त कर देता है। कषाय तो आत्मा के चारित्र, तप और निराकुल सुख-शान्ति रूप गुणों को कुण्ठित कर देता है, शक्तियों को दबा देता है, मोह-ममत्व में भटका कर आत्मा को पराधीन कर देता है। और मन-वचन-काया की प्रवृत्ति-रूप योग से आत्मा स्वभाव में रमण करने के बदले परभावों या विभावों (आत्मबाह्य भावों) में प्रवृत्ति करके स्वयं को कर्म के शिकंजे में फँसा लेती है।
प्रथम बन्धकारण : मिथ्यात्व और उसका कार्य कर्मबन्ध के इन कारणों में मोहरूपी सेनापति का सर्वप्रथम प्रबल योद्धा बनता है-मिथ्यात्व। मिथ्यात्व के होने पर आत्मा का मुख्य गुण-ज्ञान आवृत हो जाता है। ज्ञान आवृत होने पर प्राणी जानता तो है, किन्तु सम्यक् नहीं जान पाता, बहुत-सा ज्ञान लुप्त भी हो जाता है, जीव दृष्टिमूढ़ बन जाता है, सम्यक् नहीं जान पाता, जो कुछ जानता है, वह भी विपरीत जानता है। मिथ्यात्व के कारण वह दुःखद विषयों को
१. जैनयोग से भावांशग्रहण, पृ. ३२
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