________________
कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १२३ सम्यक् ज्ञान) करके समझ-बूझ-पूर्वक कर्मों को तोड़े। वीर प्रभु ने बन्धन (कर्मबन्ध तथा बन्ध का हेतु) किसे कहा है ? किसे (कर्मबन्ध) जानकर जीवकर्म को तोड़े।"१ इस गाथा का भी यही फलितार्थ है कि साधक कर्मबन्ध और कर्मबन्ध के कारणों को भलीभाँति जानकर ही कर्म और आत्मा के परस्पर बन्ध को तोड़ने में समर्थ हो सकता है।
कर्मबन्ध के कारण क्या-क्या हो सकते हैं ? ... न्यायशास्त्र का यह माना हुआ सिद्धान्त है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता। इस दृष्टि से शुभ या अशुभ कोई भी कर्मबन्ध हो, उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्यमेव मिलेगा। कई बार मनुष्य मिथ्यात्व, अविद्या, अज्ञानता एवं मूढ़ता से प्रेरित होकर शुभ-अशुभ कर्म करता रहता है। कई बार मनुष्य शक्ति, बुद्धि एवं अनुकूल परिस्थिति होते हुए भी तथा शास्त्रों और ग्रन्थों के द्वारा हिंसादि के स्वरूप और उनके दुष्परिणामों को जानते हुए भी हिंसादि आस्रवों तथा विषयों के प्रति राग-द्वेष, इष्टानिष्ट के प्रति प्रीति-अप्रीति से विरत नहीं होता। कई दफा प्रमाद, गफलत, मोहनिद्रा, असावधानी और अजागृति के कारण निरर्थक एवं अशुभकर्म कर डालते हैं। कुछ लोग क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों तथा हास्यादि नौ नोकषायों से प्रेरित होकर तीव्र रसपूर्वक कुकृत्य कर बैठते हैं। कई बार इन्द्रियों और मन के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों तथा इष्ट-अनिष्ट संयोगों, व्यक्तियों तथा वस्तुओं के प्रति प्रीति-अप्रीति या. सग-द्वेष करके मन-वचन-काया से हठात् कमों का बन्ध कर लेते हैं। 'आम्रव और बन्ध के मिथ्यात्वादि पाँचों कारण समान हैं, फिर अन्तर क्यों ? • कर्मग्रन्थ, स्थानांगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि में कर्मबन्ध के पाँच कारण इस प्रकार बताए गए हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।२ प्रश्न होता है कि समवायांगसूत्र, गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) आदि ग्रन्थों में मिथ्यात्वादि पाँचों को आनव के कारण बताये गए हैं और स्थानांग, तत्त्वार्थ आदि में इन्हीं मिथ्यात्वादि पाँचों को बन्ध के हेतु बताये गए हैं। दोनों में ये पाँचों कारण समान हैं, फिर आस्रव और बन्ध में क्या अन्तर रहा ? - इसका समाधान अनगार धर्मामृत में इस प्रकार किया गया है कि “आम्रव और बन्ध दोनों के समान कारण होते हुए भी प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन-आम्रव होता है; आगमन के पश्चात् द्वितीय क्षणादि में कर्मवर्गणाओं की आत्मप्रदेशों में १. बुझिज्ज त्ति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया ।
किमाह बंधणं वीरे, किंवा जाणं तिउट्टइ ? || -सूत्रकृतांग, श्रु.१, अ.१, ३.१, गा.१ २. (क) पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्त, अविरइ, पमाए, कसाया, जोगा ।
-स्थानांग स्था. ५/२/४१८ (ख) मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगाः बन्धहेतवः ।
-तत्त्वार्थसूत्र ८/१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org