________________
कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १२१ सकता है। कर्मबन्ध के कारणों को जाने बिना न तो वह उन कारणों से दूर रह सकता है, न ही नये आते हुए कमों को सावधानीपूर्वक रोक (संवर कर) सकता है
और न ही उन पूर्वबद्ध कर्मों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम (निर्जरा) कर सकता है। इसलिए कर्म या कर्मबन्ध को जानना ही पर्याप्त नहीं है; किन्तु उसके साथ ही कर्मबन्ध या कर्म के हेतुओं-कारणों को जानना भी अत्यावश्यक है। योगीन्दुदेव ने भी कहा है-"जो जीव बन्ध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता, वह मोहवश पुण्य
और पाप दोनों बन्धों को करता है।"१ वस्तुतः सामान्य कर्म-बन्ध के हेतुओं पर विचार के पश्चात् ही कर्म-विशेष के पृथक-पृथक हेतुओं पर विचार किया जाना चाहिए।
___ कर्मबन्ध को जानने मात्र से कर्मबन्ध से मुक्ति नहीं हो पाती ____ हमने पूर्व प्रकरणों में कर्मबन्ध के अस्तित्व और स्वरूप के विषय में पर्याप्त चर्चा की है। समयसार का स्पष्ट कथन है कि-कर्मबन्ध के अस्तित्व, स्वरूप तथा बन्धन के तीव्र-मन्द स्वभाव, एवं काल-सीमा को जानता हुआ भी जो व्यक्ति बन्धन को काटने का पुरुषार्थ नहीं करता है, और बन्धन के वश (अधीन) होकर पड़ा रहता है, तथा वह बन्धनों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप भेदों को भी जानता है, फिर भी वह उस कर्म-बन्ध से छुटकारा नहीं पाता। उससे छुटकारा वह तभी पा सकता है, जब वह आत्मा बंध के कारणभूत रागादि को दूर करके शुद्ध होगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति बाह्य बन्धन से बद्ध है, वह यदि उन बन्धनों का ही विचार करता रहे तो वह भी उक्त बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता, वैसे ही कर्मबन्ध से बद्ध व्यक्ति भी केवल कर्मबन्ध का विचार ही करता रहे तो, वह भी कर्मबन्ध से मुक्त नहीं हो पाता। जैसे बन्धन से बद्ध व्यक्ति उस बंधन को काटकर ही बन्धन से मुक्त हो पाता है, वैसे ही कर्मबन्ध से बँधा हुआ व्यक्ति भी अपनी प्रज्ञारूपी छैनी से बन्ध को काट कर, यानी आत्मा (जीव) और बन्ध के कारणों पर विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् करके ही, उस कर्मबन्ध से मुक्त हो सकता है।२ निष्कर्ष यह है कि कर्मबन्ध के कारणों को अपनी प्रज्ञा से जानकर ही व्यक्ति कर्मबन्ध को काटने में समर्थ हो सकता है। १. बंधह मोक्खहँ हेउ, णिउ जो णवि जाणइ कोइ ।
सो पर मोहिं करइ, जिय पुण्णुवि पाउ वि दोइ ॥ २. जह णाम को वि पुरिसो, बंधणयम्मि चिरकाल-पडिबद्धो ।
तिव्वं मंद-सहावं कालं च वियाणए तस्स ॥२८॥
जइ णवि कुणइ च्छेद, ण मुच्चए बंदणवसो त । . कालेण उ बहुएण वि, ण सो णरो पावइ विमोक्ख ॥२८९।।
इय कम्म-बंधणाणं, पएस-ठिइ-पयडिमेवमणुभागं । जाणतो वि ण मुच्चइ, मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ॥२९०॥ जह बंधो चिततो, बंधणबद्धो ण पावइ विमोक्ख । तह बंधे चिततो जीवो वि ण पावइ विमोक्ख ॥२९॥
-परमात्मप्रकाश गा.५२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org