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९४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
ही हैं - राग और द्वेष । या तो वह चेतना रागात्मक होती है, या फिर वह होती हैद्वेषात्मक। इन दो में इतनी शक्ति है कि ये कर्मों-कर्मवर्गणाओं को आत्मा के साथ सम्बद्ध कर देती हैं। यह एक विषचक्र है, राग-द्वेष का, जो संसारी प्राणियों में निरंतर गतिमान है। रागद्वेष के आधार पर कर्म का प्रवेश और कर्म के आधार पर रागद्वेष का चिरकाल तक जीवित रहना, अर्थात् रागद्वेष से कर्म, और कर्म (मोहनीयकर्म) से फिर राग-द्वेष | जब तक वीतरागचेतना प्राप्त नहीं होती, तब तक राग-द्वेष की चेतना चलती रहती है । ' मनुष्य के सारे कार्य, क्रियाकलाप या आचरण उससे प्रभावित रहते हैं। मनुष्य की अच्छी या बुरी मान्यताएँ राग-द्वेष से प्रभावित होती हैं। ये स्वनिर्मित पूर्वाग्रहयुक्त मान्यताएँ ही हैं, जो सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली व्यथाओं की कारण हैं। किन व्यक्तियों या वस्तुओं, अथवा विचारधाराओं या मान्यताओं के प्रति किसी का रागद्वेष कितनी प्रगाढ़ता लिये हुए है, इसकी स्पष्ट झांकी उसके चेहरे पर या आँखों . में झांकने पर हो सकती है। क्योंकि मन की प्रसन्नता - अप्रसन्नता, प्रियता - अप्रियता को व्यक्त करने के ये ही दोनों (रागद्वेष) दर्पण की भूमिका निभाते हैं। ये दोनों अपने हावभाव के पीछे गूढ़ रहस्य को छिपाए बैठे रहते हैं। इसलिए राग और द्वेष दोनों ही आत्मा के लिए क्लेशकारक हैं।
पातंजल योग दर्शन में दोनों को आत्मा के लिए क्लेशकर कहा है। वहाँ राग का लक्षण किया है - सुखानुशायी रागः, और द्वेष का लक्षण किया है- दुःखानुशांयी द्वेषः। अर्थात् सुखों की प्रतीति के पीछे रहने वाला क्लेश राग है और दुःखों की प्रतीति के पीछे रहने वाला द्वेष है। ये दोनों ही क्लेश बढ़ाते हैं। राग में मन पर संयम न होकर पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा रहती है। विषयों पर संयम के अभाव में राग भी आत्मा के लिए क्लेशकर है। द्वेष में भी अन्दर ही अन्दर तीव्र आग धधकती रहती, है। जैसे आग पर रखे हुए बर्तन में खौलते हुए पानी में कोई अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखना चाहे तो नहीं देख सकता, क्योंकि उस जल में स्थिरता नहीं है। इसी प्रकार राग-द्वेष से धधकते हुए चंचल हृदय में कोई भी साधक आत्मदर्शन करना चाहे तो सर्वथा असम्भव है। वह स्वच्छ अन्तःकरण वाला तभी बन सकता है, जब विषयों में इन्द्रियों को रागद्वेष रहित होकर प्रवृत्त करता है, किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु को रागद्वेष रहित होकर अपनाता है। गीता में भी यही कहा है- “स्वाधीन अन्तःकरण वाला या अपने मन ( या आत्मा) को वश में करके चलने वाला पुरुष रागद्वेष से वियुक्त (रहित ) होकर इन्द्रियों द्वारा विषयों का उपभोग करता हुआ भी स्वच्छ या प्रसन्न अन्तःकरण वाला बन कर आत्मशुद्धि या मनःशुद्धि को प्राप्त कर लेता है । "
राग द्वेष दोनों ही अग्नि हैं। द्वेष तो साक्षात् अग्नि है ही, यह सत्त्वशील आत्मगुणों को जलाती है, किन्तु राग भी ठंडी आग है, वह भी जलाने वाली है। शीतकाल में तीव्र शीत लहर चलती है, जिसके प्रभाव से हरे भरे वृक्ष, यहाँ तक कि
१. सुधर्मा, १९८९ में प्रकाशित लेख से भावांश ग्रहण पृ. ६४
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