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१०० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
अमावस्या की रात्रि के समान गाढ़ अन्धकारमय और शून्य-सा प्रतीत होता है। सूर्योदय होते ही उनके नेत्रों पर अंधेरा छा जाता है। प्रकाश की किरणें उन्हें अंधकार का पिण्ड प्रतीत होती हैं। उनका ऐसा ही जन्मजात स्वभाव है। '
संसार के सभी प्राणियों से उनकी स्थिति विपरीत और विचित्र
जगत् के तमाम प्राणियों से उनकी स्थिति विचित्र होती है। इन निशापूजक पक्षियों के पैर आकाश की ओर ऊँचे होते हैं, और उनका सिर नीचे लटकता रहता है। देखने वालों को आश्चर्य होता है कि जीवन - पर्यन्त पैर ऊँचे और सिर नीचे रखना, ये जीव कैसे सहन कर लेते होंगे? दूसरे पशु-पक्षियों को थोड़ी-सी देर भी ऐसी स्थिति में रखा जाए तो उनकी मृत्यु होने की संभावना रहती है। किन्तु इन निशाज़ीबी प्राणियों के लिए वैसा जीवन सहज और स्वाभाविक है; बल्कि इस प्रकार की उलटी स्थिति से उनकी मृत्यु के बदले, जिंदगी (आयु) में वृद्धि होती रहती है। इन अन्धकार - जीवी प्राणियों की प्रकृति के अनुसार ही इनके शरीर की रचना, आकृति और धारणा ही ऐसी बनी है कि उनके लिए रात्रि के घोर अंधेरे में दौड़ना - भागना, खाना-पीना, भक्ष्य-पदार्थ ढूँढ़ना आदि स्वाभाविक बात है। उन्हें अन्धकार में ही सारा जगत् प्रकाशमय और चैतन्यवत् प्रतीत होता है।
मानव समुदाय में भी अन्धकार को प्रकाश मानने वाले अधिक
तात्विक दृष्टि से विचार किया जाए तो उक्त दो प्रकार के ( प्रकाश-जीवी और अन्धकार - जीवी) प्राणियों की तरह मानव समूह में भी दो प्रकार के मानव हैं। कतिपय मानव ऐसे हैं, जिन्हें अन्धकार ही प्रकाशमय मालूम होता है, और जब प्रकाश होता है, तो उन्हें वह अन्धकार का पुंज प्रतीत होता है। पशु-पक्षियों में तो प्रकाश से प्रेम करने वाले प्राणी अधिक हैं, जबकि अन्धकार - जीवी उल्लू आदि प्राणियों की संख्य बहुत थोड़ी है; किन्तु मानव समुदाय की स्थिति इससे विपरीत है। मानव समुदाय प्रकाश - पिण्ड को अन्धकार मानने वाले मनुष्यों की संख्या अधिक है, प्रकाश को प्रकाश मानने वाले मानव बहुत ही कम मिलेंगे।
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भाव- प्रकाश के बदले भावान्धकार में जीने वाले जीव
बाह्यदृष्टि से देखने पर मानव प्रत्यक्ष में प्रकाश-प्रेमी दिखाई देता है। रात्रि को भी वह बिजली, पेट्रोमेक्स या अन्य प्रकाश के साधनों के प्रकाश में ही काम करता है, इसलिए स्थूल दृष्टि से तो मानव प्रकाशप्रेमी ही प्रतीत होता है। किन्तु अध्यात्मतत्वज्ञे की दृष्टि में वह यथार्थ प्रकाश नहीं है। यथार्थ प्रकाश है - सम्यक्त्व सूर्य का सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का, जो भाव- प्रकाश है। वही अधिकांश मानवों के जीवन में नहीं है। अधिकांश मानवों के जीवन में मिथ्यात्व का, अज्ञान का, अविद्या का तथ १. आत्मार्थी मुनि श्री मोहनऋषि जी म. की विचारधारा (हस्तलिखित डायरी नं. १ से)
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