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कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व ११७ इसके अतिरिक्त कहीं कहीं तत्त्व में अरुचि, अतत्त्वाभिनिवेश और तत्त्व में संशय, ये तीन भेद भी प्रतिपादित किये गए हैं। ___ हिंसा, असत्य, पशुबलि, मांसाहार, मद्यपान आदि मिथ्योपदेश देने वाले भी आभिग्रहिक मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं। हिंसादि ग्रस्त भी मुक्त हो जाते हैं, ऐसा कहने वाले भी मिथ्यात्वी हैं। स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के ये दो प्रकार मुख्य रूप से बताए हैं।'
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-इन दो मिथ्यात्वों के पश्चात् तीसरा प्रकार आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का है। कई मताग्रही इतने हठवादी होते हैं कि सत्य मार्ग जानने पर भी अपनी मिथ्या मान्यताओं और गलत परम्पराओं तथा अहितकर रूढ़ियों का पल्ला पकड़े रहते हैं। अहंकारवश वे अपनी असत्य बात को पकड़े रहते हैं। कोई हितैषी महात्मा उन्हें न्याय एवं विनयपूर्वक समझाते हैं, फिर भी वे कुतर्क, कुहेतु और कुयुक्तियाँ प्रस्तुत करके अपनी मिथ्यामान्यता को सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। वे उत्सूत्र-प्ररूपणा करने से बिलकुल नहीं हिचकिचाते। ऐसे व्यक्ति आभिनिवेशिक मिथ्यात्व से ग्रस्त रहते हैं।
सांशयिक मिथ्यात्व-अपने अज्ञान एवं मोह के कारण कई जिनवाणी का यथार्थ अर्थ न समझ कर संशय में डूबे रहते हैं। जैनदर्शन की गहन बात को, वे मन्दबुद्धि एवं संशयात्मक मति के कारण समझ में न आने से आधुनिक विज्ञान से सम्मत न होने पर या अन्य धर्म-दर्शन की मान्यताओं से विरुद्ध मालूम होने पर शंका करने लगते हैं। वे कांक्षामोहनीय कर्मवश भगवद्वाणी में इस प्रकार संशय करने लगते हैंपता नहीं, ऐसी प्ररूपणा क्यों की गई? भगवतीसूत्र में कांक्षामोहनीय से ग्रस्त व्यक्ति को मिथ्यात्व-ग्रस्त बताया गया है। वे जिज्ञासु बुद्धि से किसी तत्त्वज्ञ एवं अनेकान्त रहस्य ज्ञाता महात्मा से निर्णय नहीं कर पाते। ऐसी वृत्ति-प्रवृत्ति सांशयिक मिथ्यात्व है। सूत्रकृतांगसूत्र में हिंसा, साधुचर्या आदि के विषय में भ्रान्ति होना भी सांशयिक मिथ्यात्व माना गया है।२
अनाभोग मिथ्यात्व-जो जीव सतत मूढ़दशा में, अज्ञान में पड़े रहते हैं, अथवा तत्त्व-अतत्त्व को न समझने के कारण भोलेपन या अनजान में पड़े रहते हैं, वे अनाभोग मिथ्यात्व से ग्रस्त होते हैं। यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय १. (क) सूत्रकृतांग श्रु. १, अ.१, उ.४ सूत्र १ से ४ तक
(ख) मिच्छत्त दुविहं पण्णता तं जहा-आभिग्गहिय अणाभिग्गहिये च । -स्था.स्थान २ उ.१ २. (क) जैनतत्त्व प्रकाश से भावांशग्रहण पृ. ४२१-४२२
(ख) देखें, भगवतीसूत्र श.१, उ.३, सू.११२ से ११८ तक कांक्षामोहनीय कर्म के सम्बन्ध में । .. (ग) देखें, सूत्रकृतांग श्रु.१, अ.१ में गा. १ से ४ तक हिंसादिप्रेरक मिथ्योपदेश (घ) वही, सूत्रकृतांग श्रु.१, अ.२, उ.१ में (ड) आचारांग श्रु.१, अ.१, उ.४, सू.९-१० में अहिंसा तथा साधुचर्या के विषय में प्रान्तिरूप
मिथ्यात्व का कारण
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