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कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व १०१ अविवेक का ही भावान्धकार व्याप्त दिखाई देता है। इसी भावान्धकार के फलस्वरूप उनके जीवन में राग, द्वेष, कलह, क्लेश, हिंसादि पाप, तथा अन्धस्वार्थ, अन्धविश्वास, जाति, धर्म, सम्प्रदाय-प्रान्त-भाषादिगत मूढ़ताएँ, देव-गुरु-धर्म के नाम पर नाना प्रचलित कुरूढ़ियाँ, कुरीतियाँ, तथा आत्मा, परमात्मा आदि के सम्बन्ध में मिथ्यामान्यताएँ, एकान्त पूर्वाग्रह, कदाग्रह, संशय एवं भ्रान्तियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं।'
मिथ्यात्व का दूरगामी दुष्प्रभाव यह मिथ्यात्व ही एक ऐसा है, जो घोरातिघोर अन्धकारकूप में प्राणियों को डाले रखता है, उनकी आत्माओं का समग्र विकास ही रोक लेता है, उन्हें गुणस्थान की पहली सीढ़ी से आगे बढ़ने ही नहीं देता। मिथ्यात्व ही प्राणियों के जीवन का महाशत्रु है, जो सम्यक्त्व के सूर्य का प्रकाश देखने नहीं देता। जिसके कारण आत्मा घोर कर्मों के बंधन में जकड़ी रहती है। मिथ्यात्व के कारण ही वह पापकर्मों से विरत नहीं हो पाता। वह जो भी जप, तप, व्रताचरण, धर्म क्रिया आदि मिथ्यात्व के नशे में होकर करता है, उसका कर्मों से मुक्त होने का यथेष्ट लाभ उसे नहीं मिल पाता। मिथ्यात्वयुक्त होकर जो भी शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया जाता है, या जो भी चारित्र का पालन या तपश्चरण किया जाता है, वह मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही रहता है, वह सम्यग्ज्ञान या सम्यकचारित्र की कोटि में नहीं आता। उसका वह ज्ञाने या चारित्र संसार वृद्धि का ही कारण.बनता है।
मिथ्यात्व कर्मबन्ध का प्रबल और प्रथम कारण इसलिए कर्मविज्ञानमर्मज्ञों ने मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन को कर्मबन्ध का प्रबल और प्रथम कारण बताया है। १८ प्रकार के पापस्थानकों में से मिथ्यादर्शन-शल्य नामक पापस्थान सबसे बढ़कर पापकर्मबन्ध का कारण है। अकेला मिथ्यादर्शनशल्य नामक पापस्थान शेष १७ पापस्थानों को भी मात करने वाला है।
वैसे तो कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कारण बताए हैं, किन्तु इनमें सबसे प्रबल कारण मिथ्यात्व है, क्योंकि इसके रहते अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के त्याग या मन्दत्व की भावना प्रायः नहीं होती। इन चारों से बचा भी जा सके तो भी मिथ्यात्व का रोग लगा हो तो वह रलत्रय (व्यवहार-निश्चय-रत्नत्रय) रूप धर्म या संवर-निर्जरारूप धर्म अर्जित करने से वंचित रहता है।
मिथ्यात्व सबसे बड़ा पीप . इसीलिए मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप बताते हुए रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा गया है-शरीरधारी जीवों के लिए मिथ्यात्व के समान अन्य कोई अकल्याणकारी
१. वही, (डायरी नं. १ से)
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