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१०४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) परन्तु मिथ्यात्व जैसा कोई भी घातक विष नहीं है। रोग अनेक प्रकार के होते हैं। किन्तु मिथ्यात्व-सदृश कोई भयंकर रोग नहीं है। अन्धकार अनेक प्रकार का होता है, परन्तु मिथ्यात्व-सरीखा कोई घोर अन्धकार नहीं है।" इससे अनुमान लगाया जा सकता है, कि मिथ्यात्व कितनी भयंकर वस्तु है। इसमें मिथ्यात्व को महाशत्रु, महाविष, महारोग तथा महाअन्धकार की उपमा दी गई है; क्योंकि वह समस्त कर्मों की जड़ है। __भक्त-परिज्ञा प्रकीर्णक में कहा गया है-तीव्र मिथ्यात्व आत्मा का जितना अहित एवं बिगाड़ करता है, उतना बिगाड़ अग्नि, विष और काला सांप भी नहीं करते।२ मिथ्यात्वी की कोई प्रवृत्ति मोक्षकारक नहीं
मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टदायक तप करता है, अपने चारों ओर आग जला कर पंचाग्नि तप करता है, सर्दी के दिनों में घंटों जल में खड़ा होकर जप करता है, लंबे-चौड़े क्रियाकाण्ड करता है। परन्तु वे सब कर्मबन्ध के कारण होकर उसके भवभ्रमण के कारण ही बनते हैं। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी-मिथ्याज्ञानी होता है, उसके सभी भाव अज्ञानमय होते हैं, क्योंकि अज्ञानमय भाव में से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव के सभी भाव, क्रिया आदि बन्ध के कारण होते हैं। वह परद्रव्यों में सदैव रत रहने के कारण कर्मों को बांधता हुआ संसार में परिभ्रमण करता रहता है। मिथ्यात्वी का ज्ञान उन्मत्तव्यक्तितुल्य मिथ्याज्ञान ___ 'तत्वार्थ सूत्र' में कहा गया है कि उन्मत्त व्यक्ति जिस प्रकार सत् और असत् (वास्तविक और अवास्तविक) में कोई अन्तर नहीं जानता है, इसलिए उसका जो ज्ञान है, वह भी अज्ञान माना जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि सोने को सोना, लोहे को लोहा भी कह दे तो भी उसका विचारशून्य ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है। निष्कर्ष यह है कि उन्मत्त मनुष्य के अधिक विभूति भी हो जाए, कदाचित् वस्तु का यथार्थ बोध भी हो जाए, तथापि उसका उन्माद ही बढ़ता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि आत्मा, जिसके राग-द्वेष की तीव्रता और आत्मा के विषय में मिथ्याज्ञान होता है, अपनी विशाल ज्ञानराशि का उपयोग केवल सांसारिक वासना के पोषण में ही करता है, इसलिए उक्त मिथ्यात्वी के ज्ञान को अज्ञान या मिथ्याज्ञान ही कहा जाता है। जिस प्रकार उन्मत्त व्यक्ति धर्म-अधर्म को नहीं जानता, इसी प्रकार मिथ्यात्व-मध से मत्त जीव भी कभी हिंसायुक्त कार्यों को धर्म मानता है तो कभी अहिंसायुक्त कार्य को भी १. आत्म-तत्त्व-विचार से, पृ. २६४ २. नवि तं करेइ अग्गी, न य विसं किण्हसप्पो वा । ज कुणइ महादोस, तिव्वं जीवस्स मिच्छत्तं ॥
-भक्तपरिज्ञा गा.६१ ३. देखें-औपपातिकसूत्र में बालतपस्वियों का वर्णन ।
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