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कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ९३
संवेदन में समाविष्ट किया गया; जबकि माया और लोभ को रागात्मक संवेदन में। १ सामान्यतः यह माना गया कि क्रोध और अभिमान द्वेषात्मक हैं। क्योंकि द्वेष का अर्थ है - अप्रीति, विगर्हणा, स्वपरात्मबाधा, दूसरे के प्रति हीनता के परिणाम । क्रोध तो प्रत्यक्ष ही अप्रीतिरूप परिणाम है। अभिमान भी दूसरों के प्रति असहिष्णुता, घृणा, विगर्हणा आदि का प्रतीक है। इसलिए वह अप्रीत्यात्मक संवेदनरूप है। किन्तु जब अपने उत्कर्ष की - अहंभाव की अनुभूति होती है, उस समय अभिमान प्रीत्यात्मक हो जाता है। अपने उत्कर्ष के परिणाम अप्रीत्यात्मक नहीं, प्रीत्यात्मक होते हैं। इस दृष्टि से मान प्रीत्यात्मक भी है, और अप्रीत्यात्मक भी है। २
लोभादि रागात्मक भी, द्वेषात्मक भी
लोभ तो रागात्मक है ही। फिर भी जब लोभ दूसरों का उपघात करने या दूसरों के हक को छीनने, हड़पने या शोषण करने के परिणाम को लेकर वह अप्रीत्यात्मक होने से द्वेषात्मक हो जाता है। माया को वैसे रागात्मक माना गया है। माया, छल-कपट एवं धोखाधड़ी या दम्भ करते समय जो अनुभूति होती है, वह अन्तःकरण को प्रिय लगती है और व्यक्ति यह सोचता है कि मैंने इतनी सिफ्त से काम किया कि वह स्वतः प्रतिहत एवं प्रभावित हो गया। इस प्रकार की सुखद अनुभूति होने से माया प्रीत्यात्मक अथवा रागात्मक प्रतीत होती है। किन्तु जब माया वंचनात्मक होती है, दूसरों को ठगने के लिए माया-प्रयोग किया जाता है, तब वह परोपघातात्मक होने से अप्रीत्यात्मक या द्वेषात्मक होती है।
इसीलिए विशेषावश्यक में कहा गया है - " माया में भी यदि दूसरे का उपघात करने का अध्यवसाय या परिणाम होता है तो वह द्वेषरूप हो जाती है। इसी प्रकार दूसरों का शोषण या अपहरण करने की नीयत से जब मूर्च्छा या लोभ किया जाता है, तब वह भी रागात्मक न होकर द्वेषात्मक हो जाता है। अतः अनेकान्तदृष्टि से विभिन्न अपेक्षाओं को लेकर परिणामवश कषायचतुष्टय को राग या द्वेष में समाविष्ट कर लेना चाहिए। ३
संसारी प्राणियों में द्विविध चेतना निष्कर्ष यह है कि संसारी प्राणी की समस्त अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ, चाहे वे कषायचतुष्टयात्मक हों या नवविध नोकषायों से युक्त हों, इन सबके बीज कारण दो १. दोषवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता तं जहा- कोहो चेव माणं चेव । पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा पण्णत्ता तं जहा माया चेव लोहे चेव ।
२. (क) उज्जुसुयनये कोहो, दोसो सेसाण नयमणेगतो ।
रागोत्ति या दोसोत्ति व परिणामवसेण अवसेसो ॥ (ख) चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांशग्रहण पृ. १२७ ३. (क) चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांशग्रहण १ - १२८ (ख) मायं पि दोसमिच्छइ, ववहारो जं परोवघायाय । नाओवादाण च्चिय मुच्छा लोभोत्ति नो रागे ॥
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- स्थानांग सूत्र, स्थान २
- विशेषावश्यक भाष्य २९७१
- विशेषावश्यक भाष्य २९७०
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