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९६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
रूपी रस्सी का बन्धन अनोखा ही है, जिसके वश होकर काष्ट को भेदन करने निपुण भौंरा भी कमलकोष में बन्द होकर अपने प्राण दे देता है।' १ रागान्धता कितनी भयंकर
राग का लक्षण ही "अभीष्ट विषयों के प्रति आसक्ति, मूर्च्छा और पक्षपात है।' राग व्यक्ति को पक्षपाती और अविवेकी बनाता है। रागान्ध व्यक्ति रागभाव के कार अपने बच्चों के लिए रात-दिन घोड़े की तरह दौड़ते और मशीन की तरह चलते हैं। रहने के लिए सुविधाजनक एक मकान हो, फिर भी पांच-पांच बंगले बनाते हैं। प्रत्ये बड़े शहर में अपनी कम्पनी खोलते हैं, चार-पांच कारें रखना तो सामान्य बात है एक बार रागान्ध बादशाह ने अपनी बेगम से कहा- प्रिये ! मैं तुम्हारे लिये प्राण दें को तैयार हूँ। तब बेगम ने उसे सरसराता हुआ जवाब दिया
मुझ पै तुम मरते नहीं, पर मर रहे इन चार पर । नाज पर, अंदाज पर, रफ्तार पर, गुफ्तार पर ॥
यद्यपि राग का परिणाम कर्मबन्ध है, और उससे वर्तमान में भी दुःख होता है परन्तु रागान्ध व्यक्ति प्रायः मोहप्रेरित होकर दुःख पाता हुआ भी रागं भाव को नह छोड़ना चाहता। एक रोचक एवं प्रेरक दृष्टान्त पढ़ा था। एक वृद्ध व्यक्ति बीच सड़क पर बैठा रो रहा था। एक वैष्णव साधु ने उसे रोते देख पूछा - "क्यों रो रहे हो ?' "मेरा पोता अभी मेरे ही जूते से मेरे सिर पर मारकर गया है" वृद्ध ने कहा । सा करुणाप्रेरित होकर बोला- “यदि ऐसा है तो चलो, मेरे साथ। मेरे मठ में आनन्द रहो। वहाँ तुम्हें कोई कुछ न कहेगा। भगवान् का भजन करना और दोनों टाइ भोजन करना।" इस पर बूढ़े ने तमक कर कहा - " तुम्हें पंचायत करने को किस बुलाया ? पोतो म्हारो, माथो म्हारो और जूतो भी म्हारो; तू बीच में बोलण वालो कुण जा रास्तो पकड़ ।" यह है रागान्ध मनुष्य की दशा ! २
वस्तुतः रागभाव इतना गूढ़ है कि लघुभूत होकर विचरने पर भी गौतम स्वाम का भ. महावीर के प्रति हलका-सा रागभाव नहीं छूटा, तब तक उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।
रागभाव का सर्वथा त्याग वीतरागता के लिये अनिवार्य
जैनसिद्धान्तानुसार ग्यारहवाँ गुणस्थान यद्यपि वीतरागदशा का है, परन्तु उसमे रागभाव उपशान्त होता है, उसका क्षय नहीं होता। अतः मोह का उदय तो नहीं होता, उपशम हो जाता है, परन्तु यह स्थिति अधिक लम्बे समय तक नहीं रहती । अन्तर्मुहूर्त में ही आत्मा वहाँ से पुनः लौटती एवं नीचे गिरती है। वह गिरते-गिरते क्रमशः
१. (क) रागदोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा ।
ते छिंदित्ता जहानायं विहरामि जहक्कमं ॥
(ख) बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेय रज्जूकृद् बन्धनमन्यत् । दारुभेद - निपुणो ऽपि षडंप्रिनिष्क्रियो भवति पंकजकोषे ॥
२. जिनवाणी, सितम्बर १९९० में प्रकाशित पृ. ८
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-उत्तराध्ययन अ. २३
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