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कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष ९१ "इसी प्रकार यह शक्य नहीं है कि शरीर (त्वचा) से स्पृष्ट होने वाले मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श का त्याग किया जाए, किन्तु स्पर्श के प्रति होने वाले राग-द्वेष के परिणाम या संवेदन का त्याग करना चाहिए।"१
निष्कर्ष यह है कि जो अनायास-प्राप्त मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को पाकर गृद्धि (आसक्ति) नहीं करता; तथा अमनोज्ञ पापजन्य अशुभ शब्दादि को पाकर प्रद्वेष नहीं करता, वही साधक पण्डित, दान्त, विरत और अकिंचन है।
राग और द्वेष न करने का व्यापक अर्थ राग और द्वेष न करने का अर्थ यही न लगाना चाहिए कि राग तो न करे, किन्तु मोह, लालसा, वासना, तृष्णा, गृद्धि, आसक्ति, ममता, कामना, स्मरण, या चिन्तन-मनन करने में कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार द्वेष न करने का इतना ही अर्थ नहीं है कि द्वेष तो करना नहीं है, रोष, क्रोध, घृणा, नफरत, विद्रोह, धिक्कार, अपमान, मार-पीट, ताड़न-तर्जन, डांट-फटकार आदि भले ही करें। ऐसा करना गलत होगा। इससे शुभाशुभ कर्मबन्ध तो रुकेगा नहीं; एक जहर के बदले दूसरा जहर ले लिया जाए तो उससे जहर का असर कम नहीं होगा। राग और द्वेष ये दोनों प्रधान विष हैं। इनकी सेना एवं संतति बहुत बड़ी है। प्रशमरति में कहा गया है-इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गृद्धि, ममत्व, अभिनन्द (प्रसन्नता), अभिलाषा, अहंत्व, इत्यादि अनेक शब्द राग के पर्यायवाचक हैं तथा ईर्ष्या, रोष, दोष, द्वेष, परिवाद (निन्दा), मत्सर, असूया, वैर, भण्डन, कलह आदि अनेक शब्द द्वेष के पर्यायवाचक हैं।२ : इसलिए इन पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों के ग्रहण के प्रति मन से जरा भी चिन्तन-मनन न करे। वह मन को जरा भी चंचल न होने दे, वचन से जरा भी अच्छी बुरी प्रतिक्रिया प्रकट न करे, तथा काया को भी उनके प्रभाव से १. न सक्का न सोउं सद्दा, सोत-विसयमागया ।
राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । न सक्का रूपमद्दढु, चक्खू-विसयमागया । • राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ न सक्का गंधमग्घाउ, नासा-विसयमागय । राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । न सक्का रसमस्साउं, जीहा-विसयमागय । राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ न सक्का फासमवेएउ, फास-विसयमागय ।
राग-दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ -आचारांग २/३/१५/१३१ से १३५ तक २. इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो, गाध्यं ममत्वमभिनन्दः ।
अभिलाष इत्यनेकानि, राग-पर्याय-वचनानि ॥ ईर्ष्या रोषो दोषो, द्वेषः परिवाद-मत्सरासूयाः । वैर-प्रचण्डनाधा, नैके द्वेषस्य पर्यायाः ॥
-प्रशमरति १८/१९
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