________________
८२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
है। ज्यों ही किसी सजीव या निर्जीव मनोज्ञ वस्तु या भाव के प्रति रागभाव - आसक्ति, मोह, तृष्णा या लिप्सा का भाव हुआ त्यों ही मनुष्य का आकर्षण उसके प्रति होते ही तथारूप कर्मबंध हो जाता है। अमनोज्ञ वस्तु, व्यक्ति अथवा भावों के प्रति विकर्षण का भाव-घृणामय या द्वेषभाव उत्पन्न होता है।' वह भी तथारूप कर्मबन्ध का मूल कारण बनता है।
प्रियता- अप्रियता राग-द्वेषमयी दृष्टि पर निर्भर
संसार में क्या प्रिय है और क्या अप्रिय ? यह व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर है। जिसकी रागदृष्टि होगी, वह अमुक वस्तु को प्रिय कहेगा, द्वेषदृष्टि होगी वह उसी वस्तु को अप्रिय, अमनोज्ञ, अनिष्ट कहकर उससे घृणा करेगा, उसे ठुकराएगा, उसे अपनी आँखों से दूर हटाएगा। परन्तु जो वस्तु इष्ट, मनोज्ञ, प्रिय या अपनत्वभरी लगेगी, उस पर अपने अहंत्व और ममत्व की छाप वह लगाएगा, उस पर आसक्ति, मूर्च्छा और रागभाव उभरेगा। सांसारिक पदार्थ चाहे वे द्रव्यात्मक हों, चाहे प्रशंसा, प्रसिद्धि, सफलता, कीर्ति आदि के रूप में भावात्मक हों, वे सभी आत्मबाह्य हैं, परभाव हैं, विभाव हैं। जड़ हैं, वस्तुएँ अपने आप में न तो अच्छी हैं, न ही बुरी वस्तुएँ जैसी हैं, वैसी हैं। पदार्थों के रूप, रंग, गुण और नाम विभिन्न होते हुए भी अन्ततोगत्वा वे निर्जीव हैं, चेतनारहित हैं। उनका बाह्य रूप तो है, पर ऐसा कुछ नहीं, जिसमें वे अच्छी-बुरी भावात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकें। यह तो मनुष्य की अपनी दृष्टि और मान्यता है कि वह रागवश किसी वस्तु पर अच्छेपन की और द्वेषवश, घृणावश, किसी वस्तु पर बुरेपन की छाप लगाता है, एक पर प्रिय और एक पर अप्रिय का आरोपण करता है। धवला में ठीक ही कहा है- जीवों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होने से वस्तु का स्वभाव नहीं बदल जाता है, परन्तु रागद्वेषवश उसी वस्तु को एक अच्छी कहता है, दूसरा बुरी। अपने-पराये की मान्यता के कारण किसी को इष्ट, मनोज्ञ और प्रियपात्र बनाता है और कई बार उसी वस्तु को पराई हो जाने पर या उससे घृणा या ऊब हो जाने पर अनिष्ट, अमनोज्ञ, अप्रिय, अनुपयोगी और घृणापात्र ठहरा देता है।
वस्तु या व्यक्ति पर स्वयं द्वारा ही राग-द्वेषारोपण
मनुष्य का मन जिसे चाहने लगता है, जिससे प्रभावित होता है, उसके साथ राग का और जिसे नहीं चाहता या जिससे घृणा या नफरत हो जाती है, उसके साथ द्वेष का आरोपण कर लेता है। कोई भी वस्तु अपने आप में प्रशंसा या निन्दा के योग्य
१. 'सुधर्मा' के अगस्त १९८९ के अंक में प्रकाशित 'राग और द्वेष : कर्म के बीज' से भावांशग्रहण |
२. भिण्णरुचीदो केसिपि जीवाणममहुरो वि सरो महुरोव्व रुच्चइति तस्स सरस्स महुरतं कि इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्थुपरिणामाणुवलंभा
।
- धवला ६/१/९/२/६८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org