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८० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
( कर्म - ) बन्ध का संक्षेप में यही तात्त्विक दर्शन है । " 9 आशय यह है कि यदि मन-वचन-काया से कोई भी क्रिया की प्रवृत्ति करते समय रागादि से युक्त परिणामों या भावों के बीज हृदयभूमि पर नहीं बोये हैं तो वहाँ किसी भी क्रिया से भले ही कर्म आ सकते हैं, पर वे कर्म ऐर्यापथिक कर्म होंगे, पर वे बन्धकारक ( स्थितिबन्धअनुभागबन्धकर्त्ता) नहीं होते। वे कर्म प्रथम समय में आए -स्पृष्ट हुए, दूसरे में प्रकृतिप्रदेश से बंधे और तीसरे समय में झड़ जाते (निर्जरा हो जाती) हैं। २ इसलिए समयसार में इस तथ्य को फिर स्पष्ट रूप से कहा गया- "जो रागादि से युक्त भाव (परिणाम) जीव के द्वारा किया गया हो, वही नवीन कर्म का बन्ध करने वाला कहा गया है, इसके विपरीत जो (कार्य) रागादि भावों से रहित है वह कर्म का अबन्धक ( कर्मबन्ध करने वाला नहीं) है, वह केवल उस (क्रिया कार्य या प्रवृत्ति को या उस इन्द्रियादि - विषय) का जानने वाला (ज्ञाता- द्रष्टा ) ही है। " ३ आशय यह है कि कर्मबन्ध का बीजारोपण राग-द्वेष से ही होता है। रागादि के अभाव में विभिन्न क्रियाओं या प्रवृत्तियों के होने पर भी कर्मबन्ध नहीं होता।
रागादि होने पर ही कर्मबन्ध होता है, केवल क्रियाओं से नहीं
रागादि से युक्त होने पर ही जीव के कर्मबन्ध क्यों होता है, रागादि से रहित क्रियाएँ करने पर भी कर्मबन्ध क्यों नहीं होता ? इस तथ्य को एक रूपक द्वारा स्पष्ट करते हुए 'समयसार' में कहा गया है-जैसे कोई व्यक्ति अपने शरीर में तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगाता है, फिर बहुत धूल वाली जगह में जाकर विविध हथियारों से व्यायाम करता है तथा ताड़, केले का वृक्ष एवं बाँस - पिण्ड आदि का छेदन-भेदन करता है। इन क्रियाओं को नानाविध उपकरणों से करते हुए जो धूल उसके शरीर पर चिपकती है, ( रजबंध होता है ) उसका कारण व्यायाम आदि क्रियाएँ नहीं हैं, अपितु उसका वास्तविक कारण तेल आदि स्निग्ध पदार्थ (भाव) का लगाना है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अनेक चेष्टाओं में प्रवृत्त होता है, वह अपने उपयोग - परिणामों में रागादि भावों को करता है, इस कारण वह कर्मरूपी रज से लिप्त होता है- बँधता है । ४ " इसके विपरीत वही व्यक्ति जब अपने शरीर पर से तेल आदि स्निग्ध पदार्थ को पोंछकर उसी प्रकार धूलिपूर्ण स्थान में हथियारों द्वारा व्यायाम
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१. रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि कम्मेहिं राग-रहिदप्पा |
एसो बंधसमासो, जीवाणं जाण णिच्छयदो ||
- समयसार गा. १५०
२. जैसे कि उत्तराध्ययन. अ.२९ के ३१वें सूत्र में कहा गया है-तं पढम समए बद्ध, बिइयं समदे वे, तइय समए निज्जिण्णं, तं बद्धं पुट्ठे उदीरियं बेइयं निज्जिण सेयाले य अकम्मया च भव । ३. भावो रागादिजुदो, जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो ।
रायादि- विप्पक्को अबंधगो, जागो णवरिं ॥
४. देखें- स्नेहाभ्यक्त शरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् ।
राग-द्वेष- क्लिन्नस्य कर्मबन्धो भवत्येवम् ॥
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- समयसार गा. १६७
- प्रशमरति ५५
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