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७८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
निष्कर्ष यह है कि कर्मबन्ध का मुख्य स्रोत व्यक्ति की आत्मा के शुभ-अशुभ अध्यवसाय हैं, न कि कोई वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, स्थानविशेष या क्रिया निमित्तविशेष ! अध्यवसाय के अनुसार स्थितिबन्ध और रसबन्ध
जहाँ तक शुभ-अशुभ कर्मबन्ध का प्रश्न है, वहाँ उसकी मुख्य स्रोत शुभ-अशुभ अध्यवसायों या परिणामों (भावों) की धारा है। कर्मसिद्धान्त का भी यह नियम है कि जीव के केवल त्रिविध योग होने से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है, किन्तु आत्मा में जब प्रशस्त-अप्रशस्त रागादि अध्यवसाय (परिणाम) होता है, तब अध्यवसाय के अनुसार स्थितिबन्ध और रसबन्ध होता है।' रत्नत्रयरूप भावधर्म के अध्यवसाय शुद्ध हों
अतः चारों प्रकार के कर्मबन्ध से रहित होने के लिए आत्मा को अपने अध्यवसायों या परिणामों को शुद्ध (कर्मक्षयकारक) रखना अनिवार्य है। अध्यवसायों की शुद्धि ही भावधर्म (सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूप शुद्ध धर्म) की परिचायिका है। कर्मों से सर्वथा मुक्त होने का मार्ग है।
१.
आत्मतत्व-विचार से भावांश ग्रहण, पृ. ३४८-३४९
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