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१४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) फिर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणियों में भी एक-एक जाति के प्राणियों के हजारों-लाखों प्रकार हैं। इसके अतिरिक्त उनके शरीर, गति, इन्द्रिय, योग, उपयोग, लेश्या, कषाय,. भव, संज्ञित्व-असंज्ञित्व, ज्ञान-अज्ञान, आहार आदि में भी अनन्त-अनन्त वैविध्य हैं। भगवान महावीर से यह पूछने पर कि भगवन् ! जीवों में ये सब विभिन्नताएँ कर्मों के कारण हैं या अकर्मता के कारण? तब उन्होंने यही समाधान दिया कि ये सब विभिन्नताएँ अकेली आत्मा या अकर्म के कारण नहीं हैं, किन्तु आत्मा के साथ कर्मबन्ध होने के कारण हैं। अगर आत्मा के साथ कमों का बन्ध न होता तो सभी प्राणी एक जैसे होते। उन जीवों में कोई भी विचित्रता या विभिन्नता न होती। इसी तथ्य को हम 'कर्म का अस्तित्व' नामक प्रथम खण्ड के अन्तर्गत 'कर्म-अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत-वैचित्र्य,' तथा 'विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध' शीर्षक निबन्धों में स्पष्ट कर आए हैं। इसलिए यह कारण भी कर्मबन्ध के अस्तित्व को प्रबलता से प्रमाणित करता है।
यही कारण है कि कर्मविज्ञान के परम उपदेष्टा भगवान् महावीर ने सूत्रकृतांग-सूत्र में भव्यंजीवों को प्रेरणा देते हुए कहा है-"न बन्ध है और न ही मोक्ष है, ऐसी संज्ञा (श्रद्धा या बुद्धि) नहीं रखनी चाहिए। अपितु बन्ध भी है और मोक्ष भी है, ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए।"२ ।।
अन्य दर्शनों में भी कर्मबन्ध के अस्तित्व का स्वीकार , ___ न्यायदर्शन और वैशेषिकदर्शन भी कर्मबन्ध के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। मीमांसादर्शन एक या दूसरे रूप में कर्मबन्ध का अस्तित्व मानता है। वेदों में जहाँ यज्ञ-यागादि कर्मों की चर्चा है, वहाँ वेदविहित कर्म से अतिरिक्त कर्म-मर्यादाओं का उल्लंघन करके किये जाने वाले अथवा अज्ञानतापूर्वक अविधिपूर्वक किये जाने वाले कर्म को 'शतपथ ब्राह्मण' में कर्मबन्ध कहा गया है। 'ऋग्वेद' में यज्ञ को विधिपूर्वक सम्पन्न न किये जाने को 'कर्मबन्ध' की संज्ञा दी गई है।३ योगदर्शन और सांख्यदर्शन में प्रकृति-पुरुष-संयोग को कर्मबन्ध मान कर इस पर व्यापक चर्चा की गई है।४ ।
उपनिषदों में कर्मबन्ध की परिधि व्यापक हो गई है। वहाँ कर्मबन्ध को यज्ञसीमित क्रियाओं पर ही आधारित न मानते हुए कहा गया है-जो लोग इष्ट, पूर्त और दत्त १. देखें, कर्मविज्ञान, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड में “कर्म-अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्-वैचित्र्य"
तथा 'विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध' शीर्षक लेख। २. णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्न निवेसए ।
अत्थि बंधे व मोक्खे वा, एवं सन्न निवेसए ॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. ५, गा. १५ ३. (क) शतपथ ब्राह्मण १०/४/३/१०,
(ख) ऋग्वेद ८/२१/१४ ४. योगदर्शन (विद्योदय भाष्य सहित) साधनपाद २, सू. २५, पृ. १२८ .
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