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२४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
उत्तराध्ययन सूत्र में शरीरासक्ति को दुःखोत्पत्ति का कारण बताते हुए कहा गया है - " जो व्यक्ति मन, वचन और काया से अपने शरीर पर तथा शरीर के रंग (वर्ण) और रूप पर सर्वथा आसक्त हैं, वे अपने लिए दुःख के उत्पादक हैं। अर्थात् दुःखरूप कर्मबन्ध के कारक हैं। "9
भगवती सूत्र में तो दुःख को कर्मबन्ध का पर्यायवाचक तुल्य बताते हुए कहा गया है - जो दु:खित - कर्मबद्ध है, दुःख - कर्मबन्ध को प्राप्त करता है, जो दुःखित (कर्मबन्ध) नहीं है, वह दुःख (कर्मबद्ध) को नहीं पाता । "
इसी प्रकार दुःखी (कर्मबद्ध) जीव ही दुःखों को परिग्रहण करता है, वही दु:ख की उदीरणा करता है, वही दुःख का वेदन करता (भोगता) है, तथा वही दुःख की निर्जरा करता है । अदुःखी ( अकर्मबद्ध सिद्ध परमात्मा) नहीं। २
इससे स्पष्ट है कि दुःख और कर्मबन्ध दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ दुःख है, वहाँ कर्मबन्ध है। संसार में जितने भी दुःख हैं, चाहे वे कायिक हों, मानसिक हों या बौद्धिक, अथवा वे पारिवारिक हों, सामाजिक हों, या राजनैतिक, आधिभौतिक हों, आधिदैविक हों या आध्यात्मिक, स्वकृत हों, या परकृत, प्रकृतिकृत हों या परप्राणिकृत, सभी एक या दूसरे प्रकार से कर्मबन्ध के कारण हैं।
प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने बन्धन को दुःखरूप माना
भारत के प्रत्येक आस्तिक दर्शन ने बन्धन ( कर्मबन्ध) को दुःख रूप माना है और आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों ही दुःखों का विघात - नाश करना ही जीवन का चरम लक्ष्य बताया है। 'सांख्यदर्शन' ने इसी तथ्य को व्यक्त करने हेतु 'सांख्यकारिका' की प्रथम कारिका में कहा है- " सारा संसार दुःखत्रय से अभिहतपीड़ित है। अतः सर्वप्रथम यही जिज्ञासा होनी चाहिए कि दुःखत्रय के विघातक हेतु कौन-कौन से हैं? ३ योगदर्शन ने कहा- सभी विवेकी पुरुषों के लिए यह संयोग दुःख है, अतः वह हेय है, अनागत दुःख भी हेय है। बौद्धदर्शन ने चार आर्यसत्य ये ही बताए हैं - दुःख ( बद्धकर्म हेय), दुःख समुदय (हेयहेतु), दुःखक्षय का मार्ग ( हानोपाय या मोक्षोपाय), एवं दुःखनिरोध (हान या मोक्ष ) |
9. जे केइ सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो । मणसा काय वक्कण, सव्वे ते दुक्ख संभवा ॥ २. दुक्खी दुक्खेण फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेण फुडे । दुक्ख उदीरेति, दुक्खी दुक्ख वेदेति, दुक्खी दुक्ख निज्जरेति ।
३. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । ४. दु:खमेव सर्व विवेकिनः हेयं दुःखमनागतम् ॥ ५. बौद्धदर्शन
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-उत्तराध्ययन ६/१२/
एवं दुक्खी परियावियति, दुक्खी।
- व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श. ७ उ. १ सू. १४/१५/१-२ - सांख्यकारिका १
- पातंजलयोगदर्शन २/१५-१६
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