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३० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
इकट्ठी हो जाएँ, तब कहा जाता है कि उक्त दोनों वस्तुएँ संयोग को प्राप्त हुईं। आशर यह है कि पहले वियोग हो तो संयोग होता है, ऐसा व्यावहारिक जगत् में देखा जात है। इस दृष्टि से यहाँ भी कर्म और आत्मा के संयोग में यह भ्रम पैदा होता है कि पहले दोनों का वियोग हो गया था, फिर इन दोनों के संयोग की शुरुआत हुई। ऐस मानने से कर्म और आत्मा की आदि सूचित होती है, मगर यह सिद्धान्तविरुद्ध है इसलिए यहाँ संयोग शब्द एक अलग अपेक्षा से ही प्रयुक्त किया जाता है। आत्मा औ कर्म भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण वाले हैं। इसी भिन्नता को सूचित करने में ही संयो शब्द की सफलता है। आत्मा और कर्म का स्वभाव भिन्न-भिन्न, फिर भी इन दोनों का संयोग
आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा, इन्द्रियातीत, अमूर्तिक, संकोच-विस्तार शक्तियुक्त औ असंख्यात-प्रदेशी एक द्रव्य है। इससे विपरीत कर्म-द्रव्य पौद्गलिंक, समूर्त औ जड़-पिंड है। ये दोनों द्रव्य अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाले हैं। ये दोनों एक प्रदेशावगाई होने पर भी स्वभाव में निराले-निराले हैं। आत्मा का एक भी प्रदेश कर्मरूप नहीं होता इसी प्रकार कर्म का एक भी परमाणु आत्मरूप नहीं होता। सोना और चाँदी, दोनों के एक बर्तन में गलाकर तथा दोनों को एकत्र ढालकर संयुक्त करने पर भी सोना अपन पीलेपन के गुण सहित चाँदी के श्वेत गुण से भिन्न ही रहता है। तेजाब के प्रयोग दोनों को पृथक्-पृथक किया जा सकता है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म दोनों एवं साँचे में ढले हुए वर्तमान में प्रतीत होते हैं, वर्तमान में दोनों का संयोग हो रहा है फिर भी स्वभाव से दोनों (आत्मा और कर्म) द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में हैं। वीतरा सर्वज्ञ प्रभु की दृष्टि से ये दोनों द्रव्य भिन्न-भिन्न भासित होने से ही इन दोनों क संयोग प्रतिपादित किया गया है। इसलिए संयोग-शब्द इस स्थल पर इसी अपेक्षा के ही सूचित करता है। संयोग शब्दजन्य भ्रान्ति के निराकरणार्थ श्लेष शब्द-प्रयोग _संयोग शब्द से व्यावहारिक जगत् में होने वाली पूर्वोक्त भ्रान्ति उत्पन्न न हो, इस अपेक्षा से 'तत्त्वार्थ भाष्य' आदि में संयोग के बदले श्लेष शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है-“बन्धन बन्ध है, (अर्थात्-आत्मा और कर्म दोनों का) परस्पर आश्लेषचिपकना बंध है।"२ 'भाव-प्राभृत' में इसी तथ्य को और स्पष्ट करते हुए कहा है"आस्रव के अनन्तर दूसरे क्षण (समय) में आत्मप्रदेशों में कर्म-परमाणुओं का जं श्लेष होता है, वह बन्ध है।"३ ।
१. कर्म अने आत्मानो संयोग (श्री अध्यायी) से, पृ. ४ २. बन्धन बन्धः परस्पराश्लेषः।
___ -तत्त्वार्थ भाष्य, हारि. वृ. ५/२४ ३. आत्मप्रदेशेषु आम्नवानन्तरं द्वितीय समये कर्मपरमाणवः श्लिष्यन्ति स बन्धः।
___ -भावप्राभृत टी. ९५
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