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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ५७ और भोगता है। भोगते समय फिर राग-द्वेष या कषाय करता है, जिससे फिर नया कर्म बाँधता है, और फल भोगता रहता है।
जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति से प्रतिक्षण जुड़े हुए कर्मबन्ध से अनभिज्ञ गहराई से सोचें तो जो हमारे जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति और प्रत्येक क्षण के साथ जुड़ा हुआ है, उस कर्म बन्ध के विषय में हम बहुत कम सोचते हैं, हम मन-वचन-काया से मनमानी करते चले जाते हैं, किन्तु यह नहीं सोचते कि इस प्रकार हम अपने आपको कर्म के हाथ में क्यों सोप रहे हैं, क्यों कर्मबन्ध करके अपनी शक्तियों तथा अपने स्वाभाविक गुणों को कुण्ठित, आवृत एवं सुषुप्त तथा मूर्छित करते जा रहे हैं?
मानव कर्मबन्ध का जाल स्वयं बुनता है, स्वयं फंसता है जैसे मकड़ी स्वयं ही अपना जाला बुनती है और स्वयं ही उसमें फसती चली जाती है। शहतूत का कीड़ा अपनी मृत्यु के लिए स्वयं कोष बनाता है। यदि वह कोष न बनाए तो रेशम के धागे निकालने के लिए स्वयं को अत्यन्त गर्म पानी में न उबलना पड़े और बेमौत न मरना पड़े। कस्तूरी मृग अपनी नाभि में कस्तूरी नहीं बनने देता तो कस्तूरी पाने के लिए उसको जो अकाल में ही मौत के घाट उतारा जाता है, वह न उतारा जाता। इसी प्रकार कर्मबन्ध के रहस्यों से अनभिज्ञ और उसके प्रति उपेक्षा और अरुचि करने वाला मानव दूसरों को फंसाने के लिए नहीं, अपितु स्वयं को फंसाने तथा स्वयं को बाँधने के लिए जाल बिछाता और स्वयं को कर्मों की गिरफ्त में बाँधता चला जा रहा है। वह इस बात से अनभिज्ञ है कि कर्मबन्ध क्यों, कब और कैसे हो जाता है? अमूर्त आत्मा मूर्त कर्मों के साथ कैसे बँध जाता है? जो कर्म आत्मा को परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ते हैं, उसके साथ जीव क्यों स्वयं चिपट जाता है? एक साथ ही, वह सात या आठ कर्म कैसे बाँध लेता है? निश्चय से परमात्मतत्त्व सदृश होने पर भी आत्मा व्यवहार में कर्म से क्यों और कैसे बंध जाता है? इन और ऐसे ही कर्मबन्ध से सम्बन्धित अनेक पहलुओं पर इस निबन्ध में गहराई
से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक पहलू पर गहराई से मन्थन करने पर कर्मबन्ध • का रहस्य समझ में आ सकता है।
१. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावांशग्रहण, पृ.२१४,२१५
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