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कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ७५ और क्रोधान्ध होकर शिष्य को मारने दौड़ा, परन्तु बीच में ही खंभा आ जाने से उसका मस्तक जोर से उससे टकराया और वहीं क्रोध के तीव्र अशुभ अध्यवसाय में ही उसका प्राणान्त हो गया। तीव्र अशुभ अध्यवसाय के कारण अशुभ कर्मबन्ध के फलस्वरूप वह चण्डकौशिक सर्प बना । सर्पयोनि में पहले तो क्रूर अध्यवसाय के कारण उसने घोर पापकर्म का बन्ध किया, परन्तु बाद में उसे विश्ववत्सल भगवान् महावीर का समागम मिला। भगवान् के निमित्त से उसका कोप शान्त हो गया। पूर्वजन्म की स्मृति होने से तथा भगवान् का प्रतिबोध पाने से उसके अध्यवसाय शुभ हुए। वह क्रोधमूर्ति से क्षमामूर्ति बन गया। उस तीव्र शुभ अध्यवसाय के फलस्वरूप शुभकर्म का बन्ध हुआ। अतः मर कर वह देव बना । '
यह था, प्रबल निमित्त के योग से अशुभ अध्यवसाय का शुभ अध्यवसाय में परिणमन तथा उसके फलस्वरूप शुभकर्मबन्ध और उसके कारण शुभफल की प्राप्ति ।
अशुभस्थान में भी शुभ और शुभस्थान में भी अशुभ अध्यवसाय
कभी-कभी निमित्त के बिना भी मनुष्य में अशुभ स्थान में शुभ अध्यवसाय और शुभ स्थान में अशुभ अध्यवसाय उत्पन्न हो जाता है। इसीलिए आचारांग में कहा गया है- "जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा ।” २ " जो आस्रव (बन्ध के हेतु) हैं, वे अध्यवसाय - विशेष से संवर (मोक्ष के हेतु ) हो जाते हैं, और जो संवर (मोक्ष के हेतु) हैं, वे अध्यवसाय - विशेष से आनव (बन्ध के हेतु) बन जाते हैं । " इसीलिए किसी स्थान विशेष का उतना महत्व नहीं है, जितना महत्त्व शुभ-अशुभ या शुद्ध अध्यवसाय विशेष का महत्त्व है। मन्दिर जैसे पवित्र स्थान में भी लोग चोरियाँ . करते हैं, व्यभिचार लीला चलाते हैं। और सामान्य झौंपड़ी में रहने वाले जापान के संत कागावा शुभ अध्यवसायवश सेवा कार्य के फलस्वरूप शुभ कर्म (पुण्य) बन्ध कर लेते हैं। इसीलिए नीतिशास्त्र में कहा गया है - " राग-द्वेष या कषाय से युक्त मनुष्य को वन के एकान्त शान्त पवित्र स्थान में अशुभ अध्यवसायवश अनेक दोष (अशुभ कर्मबन्ध) आ घेरते हैं, जबकि पवित्रता तथा शुभ अध्यवसाय पूर्वक रहने वाले व्यक्ति के लिए घर में भी पंचेन्द्रियनिग्रहरूप तप हो सकता है।
अध्यवसाय परिवर्तन के लिए एक दृष्टान्त
जैनाचार्य श्री जवाहरलालजी म. ने एक दृष्टान्त दिया है--दो मित्र थे। उनमें से एक ने विचार प्रकट किया कि हमारे नगर में पवित्र जैन साधु पधारे हैं, मैं तो उनका व्याख्यान सुनने जाऊँगा। दूसरे मित्र ने कहा - " साधुजी के नीरस व्याख्यान में मुझे
१. देखें, 'तीर्थकर महावीर' में चण्डकौशिक का वृत्तान्त
२. आचारांग सूत्र, श्रु. १, अ. ४, उ. २
३.
(क) जापान के एक कर्मठ सेवाभावी संत कागावा ।
(ख) वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रिय-निग्रहस्तपः ।
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- हितोपदेश
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