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कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ६१
__ असंख्यात अध्यवसाय धाराएँ-असंख्यात कर्मबन्ध प्रकार जिस प्रकार गंगा महानदी हिमालय से शुद्धरूप में निकलती है, परन्तु आगे लकर शुभ और अशुभ धाराओं के अतिरिक्त, कहीं तीव्र, कहीं मन्द, कही मध्यम ति से प्रवाहित होती है। उसी प्रकार आत्मा का अध्यवसाय अपने आप में शुद्ध होते हुए भी रागद्वेष-कषायादि के मिलने से कहीं अशुभ अध्यवसाय धारा हो जाती है, नहीं प्रशस्त रागादि के कारण शुभ अध्यवसाय रूप हो जाती है। फिर उन धाराओं के भी तीव्र, मन्द, मध्यम होने से वे प्रशस्त-अप्रशस्त अध्यवसाय धाराएँ असंख्येय रूप धारण कर लेती हैं। प्रज्ञापना सूत्र में गौतमस्वामी ने भगवान महावीर स्वामी से नारकों से लेकर वैमानिक देवों तक २४ दण्डकवर्ती जीवों के अध्यवसाय स्थानों के विषय में प्रश्न क्रिया है कि “समस्त संसारी जीवों के कितने अध्यवसाय स्थान हैं? तथा वे प्रशस्त हैं या अप्रशस्त?" उत्तर में भगवान ने कहा-'गौतम ! वे अध्यवसायस्थान असंख्यात हैं, तथा वे प्रशस्त भी हैं, अप्रशस्त भी हैं। १
शुभाशुभ कर्मों का बन्ध : शुभाशुभ अध्यवसायों पर निर्भर निष्कर्ष यह है कि आत्मा के शुभ या अशुभ परिणाम या अध्यवसाय की धाराएँ चाहें तीव्र हों, मंद हों या मध्यम हों, शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के मूल स्रोत हैं। शुभाशुभ कर्मबन्ध इन्हीं अध्यवसायों पर निर्भर हैं। जैसे-शुभाशुभ कर्मबन्ध आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसायों पर निर्भर हैं, वैसे ही कर्मों से मुक्ति या क्षय भी आत्मा के शुद्ध अध्यवसाय पर निर्भर है। जीवन-निर्माण में अध्यवसाय का स्थान अति महत्वपूर्ण है। यदि व्यक्ति का अध्यवसाय शुभ है तो उसका जीवन भी शुभ की ओर बढ़ते-बढ़ते कदाचित् शुद्ध को ओर भी प्रवृत्त हो सकता है। इसके विपरीत यदि अध्यवसाय अशुद्ध है तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य उत्तरोत्तर पतन की ओर निःसंकोच प्रवृत्त होता रहता है। जैसे व्यावहारिक जगत् में प्रगति और अवगति अध्यवसायों (संकल्पों, दृढ़ इच्छाशक्ति या परिणामों) पर अवलम्बित है, वैसे ही नैतिक एवं धार्मिक क्षेत्र में भी आत्मा की प्रगति-अवगति या उत्थान-पतन आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसायों (परिणामों) पर निर्भर है, वे ही शुभाशुभ कर्मबन्धों के प्रेरक हैं।२।
- अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध अध्यवसाय का परिणाम __प्रश्न होता है-शुभ-अशुभ अध्यवसाय कैसे शुभाशुभ कर्मबन्ध का और उसके परिणामस्वरूप कैसे-कैसे ऊर्ध्वगति और अधोगति का कारण बन जाता है। तथा शुभ से शुद्ध अध्यवसाय में कैसे-कैसे व्यक्ति पहुँच जाता है? इसके लिए शास्त्रोक्त प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की जीवनगाथा देखिये
१. णेरइयाण भन्ते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता? ते ण भते ! किं पसत्था, अप्पसत्था वा? गोयमा ! असंखिज्जा पण्णत्ता, पसत्था वि अप्पसत्था वि । एवं जाव वेमाणियाणं ।
-प्रज्ञापना ३४वा पद २. आत्मतत्वविचार से पृ. ३७०-३७१
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