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कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ५९ ठीक इसी प्रकार कर्मविज्ञानवेत्ता मनीषियों ने कर्मबन्ध की शुभ, अशुभ और शुद्ध आदि विविध धाराओं का मूल स्रोत ‘अध्यवसाय' को माना है।
__ अध्यवसाय विभिन्न अर्थों में यद्यपि दार्शनिक एवं व्यावहारिक जगत् में अध्यवसाय के कई अर्थ दृष्टिगोचर होते हैं। वेदान्त दर्शन बुद्धिधर्म को 'अध्यवसाय' कहता है। नैयायिक कहते हैं कि अध्यवसाय आत्मा का धर्म है, जो ‘यही है' इस प्रकार के विषय के परिच्छेद यानी निश्चय के अर्थ में प्रयुक्त होता है। सांख्यदर्शन में विषयों को ग्रहण की हुई इन्द्रियों की वृत्ति-प्रवृत्ति के होने पर बुद्धि से रजोगुण और तमोगुण का अभिभव होने तथा सत्वगुण का समुद्रेक होने को अध्यवसाय कहा गया है।' गीता में निश्चय अर्थ में अध्यवसाय शब्द प्रयुक्त हुआ है।
व्यावहारिक जगत् में अध्यवसाय का अर्थ किया जाता है-प्रयल, परिश्रम, उत्साह या लगन।
जैनदर्शन में भी विविध सन्दर्भ में अध्यवसाय के विभिन्न अर्थ आगमों में दृष्टिगोचर होते हैं। कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में कर्मबन्ध के मूल स्रोत के रूप में अध्यवसाय का अर्थ आत्मा का परिणाम, या भाव किया गया है। 'समयसार' में बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, अध्यवसाय, मति-विज्ञान, चित्तभाव और परिणाम, इन्हें एकार्थक कहा गया है। श्वेताम्बर जैनागमों तथा ग्रन्थों में भी इन्हीं अर्थों में अध्यवसाय शब्द का प्रयोग किया गया है। आचारांग, विपाक सूत्र, आवश्यक, स्थानांग, ज्ञातासूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों की टीकाओं में अध्यवसाय का अर्थ किया गया है-आत्म-परिणाम, विचार, अन्तःकरण-प्रवृत्ति, उत्साह, वाचा-संकल्प, आत्मा के सूक्ष्म परिणामविशेष, मनःसंकल्प, अत्यन्त हर्ष और विषाद से अधिक अवसान-चिन्तन, चिन्तन विशेष आदि।२ १. (क) बुद्धिधर्म इति वेदान्तिनः।
(ख) अध्यवसायः इदमेवेति विषय-परिच्छेदे-निश्चये, स चाऽत्मधर्मः, इति नैयायिकाः। (ग) उपात्तविषयाणमिन्द्रियाणां वृत्तौ सत्या बुद्धेः रजस्तमोऽभिभवे सति सत्त्व-समुद्रे कः सोऽयमध्यवसायः इति सांख्याः।
-अभिधान राजेन्द्र कोष भा.१, पृ. २३२ (घ) आत्मतत्त्वविचार (विजयलक्ष्मण सूरिजी म.) से पृ. ३६९-३७० २. (क) आत्मतत्व विचारं पृ ३७० (ख) अध्यवसायः (अज्झवसाओ) आत्म-परिणाम; विचारः।
आचारांग श्रु.१, विपाकसूत्र १/२, कर्मग्रन्थ भाग ४, पृ. ८२ (ग) बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मई य विण्णाणं । - एकट्टुमेव सव्व चित्तं भावो य परिणामो ॥
-समयसार २७१ (घ) अन्तःकरण-प्रवृत्तौ।
-सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. २ (ड) मनसः परिणतौ।
-ज्ञाता श्रु. १ अ. १ टीका (च) मणसंकप्पेत्ति वा अज्झवसाण से वा एगट्ठा ।
-निशीथचूर्णि १ उ. (छ) उत्साहे वाचासंकल्पे।
-आवश्यक टीका अ.३ (ज) सूक्ष्मेषु आत्मनः परिणाम-विशेषेषु।
-आचारांग श्रु. १, अ. १, उ.२
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