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७० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जल आदि के शरीर वाले एकेन्द्रिय जीवों में हमारी तरह हर्ष-शोक, भय, चिन्ता, सुख-दुःख आदि का वेदन होता है और उन्हीं शुभ-अशुभ अध्यवसायों के कारण उन कर्मबन्ध होता है। उन शुभाशुभ अध्यवसायों का उन स्थावर जीवों के जीवन पर अचूक प्रभाव भी पड़ता है। वनस्पतिकायिक जीवों में शुभाशुभ अध्यवसाय होता है, इसे जैनागमों में तो यत्र-तत्र बताया ही है। इसके अतिरिक्त सुप्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने तो वनस्पतिकायिक जीवों पर प्रत्यक्ष प्रयोग करके यह प्रमाणित कर दिया कि उन पर निन्दा-प्रशंसा का, भय, चिन्ता आदि का शीघ्र प्रभाव पड़ता है। अध्यवसाय के बिना यह सब सम्भव नहीं है। निगोद के जीवों में भी अध्यवसाय और कर्मबन्ध .. ___ यहाँ तक कि निगोद के जीव, जो जड़प्राय अवस्था में रहते हैं, उनमें भी अध्यवसाय होते हैं। अगर उनमें अध्यवसाय न हों तो उनमें और जड़-पदार्थों में अन्तर ही क्या रहेगा? प्रत्येक आत्मा के आठ रुचक प्रदेश खुले रहते हैं। इसलिए किसी भी जीव का ज्ञान पूर्णतया आवृत नहीं होता। यही कारण है कि एकेन्द्रिय, और उसमें भी निगोद जीव को भी अध्यवसाय होता है, जिससे उनका कर्मबन्ध चालू रहता है। द्वीन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के अध्यवसाय तो होते ही हैं, और उनके कारण शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध होता है। केवल वीतराग आत्माओं को संकल्पविकल्परूप अध्यवसाय नहीं होता। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में शुभ अध्यवसाय भी संभव
कई लोग कहते हैं कि तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में अशुभ अध्यवसाय तो हो सकते हैं, परन्तु शुभ अध्यवसाय की गुंजाइश उनमें कहाँ से हो सकती है? परन्तु जैन कर्म विज्ञानानुसार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही नहीं, एकेन्द्रिय जीवों में भी शुभ अध्यवसाय होते हैं। कई वनस्पतिकायिक जीव मरकर मनुष्यगति प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के भी निमित्त मिलने पर शुभ अध्यवसाय जाग्रत हो सकते हैं। उदाहरण के लिए नन्द मणियार को ले लें
नन्द मणियार भगवान महावीर का श्रावक था। एक बार वह पौषधशाला में पौषधव्रत में था, तभी पूर्व संस्कारवश अथवा कुसंगवश उसके मन में पिपासाकुल जीवों के लिए बावड़ी, पथिकों के लिए विश्रामशाला, व्यायामशाला, स्नानगृह आदि बनवाने की इच्छा जाग्रत हुई । इन्हीं विचारों की उधेडबुन में लगा रहा। पौषध पारने के बाद उसने बावड़ी आदि बनवाई। लोगों के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर बावड़ी में उसकी अत्यन्त आसक्ति हो गई। यहाँ तक कि पौषधव्रत में भी बावड़ी में अत्यन्त आसक्ति रही। संयोगवश उसी दौरान उसकी मृत्यु हो गई और वह बावड़ी में अत्यासक्ति के कारण मर कर उसी बावड़ी में मेंढ़क बना। वह अब बावड़ी के किनारे १. आत्मतत्व विचार, पृ. ३४५
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