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कर्मबन्ध का मूल स्रोत : अध्यवसाय ६७ (४) चतुर्थ भंग-न भाव से अदत्तादान, और न द्रव्य से भी। यह भंग भी पूर्वोक्त चतुर्थ भंगों के सदृश शून्य है, केवल शब्दोल्लेखमात्र है। द्रव्य से और भाव से अदत्तादान का निषेध होने से यह भंग कर्मबन्ध का हेतु नहीं है।'
अब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित चतुर्भगी-(१) प्रथम भंग-केवल द्रव्य से मैथुनअब्रह्मचर्य, भाव से नहीं। राग-द्वेष की भावना से रहित किसी शीलवती महिला पर यदि कोई दुष्ट, अत्याचारी बलात्कार करके उसका शील भंग करता है, तो उक्त महिला का यह द्रव्य से मैथुन-अब्रह्मचर्य है, भाव से नहीं। वस्तुतः उक्त नारी का शीलभंग का किसी प्रकार का भाव न होने से बाहर से द्रव्यतः शीलभंग होने पर भी यह शीलभंग (मैथुन या अब्रह्मचर्य दोष) की कोटि में नहीं आता। तथा उक्त द्रव्यतः शीलभंग से किसी भी प्रकार के पापकर्म का बन्ध उक्त नारी को नहीं होता। यह स्पष्ट है कि भाव, अध्यवसाय या परिणाम के अभाव में केवल जड़ शरीर की क्रिया से कुछ भी अच्छा या बुरा-शुभ का अशुभ नहीं होता। बलात्कारियों के उपद्रव से पवित्र शीलवती नारी की पवित्रता भंग नहीं होती। अतः उसे दूषित नहीं माना जाना चाहिए। किसी शीलवती सती पर बलात्कार होने पर पवित्रता के नाम पर उसके प्रति दुर्भाव फैलाना या दुर्व्यवहार करना उचित नहीं। ऐसा करना पाप है, हिंसा है, असत्याचार
(२) द्वितीय भंग-भाव से मैथुन, द्रव्य से नहीं। मन में मैथुन की संज्ञा-विषयवासना की वृत्ति है, किन्तु परिस्थितिविशेष से अवसर न मिलने से उसकी पूर्ति नहीं होती। अर्थात्-अपनी कामवासना को क्रियान्वित करने का मौका नहीं मिलता। यह भाव से मैथुन है, द्रव्य से नहीं। अतः द्वितीय भंगानुसार मन में मैथुन का भाव होने से कर्मबन्ध का हेतु है।
(३) तृतीय भंग-मन में मैथुन की वृत्ति भी, और तदनुरूप क्रियान्विति भी। यह द्रव्य और भाव दोनों से मैथुन-सेवन है। इस भंग के अनुसार व्यक्ति के मन में भी अब्रह्मचर्य का भाव है और क्रिया से भी वह मैथुन-सेवन कर लेता है। इसलिए भावमूलक होने से तृतीय भंग भी कर्मबन्ध का हेतु है।
१. (क) अदत्तदुट्ठस्स साहुणो कहिं वि अणणुण्णवेऊण तणाई गेण्हओ, दव्वओ अदिनादाण, णो
भावओ। (ख) हरामि त्ति अब्भुज्जयस्स तदसंपत्तीए भावओ, न दव्वओ । (ग) एवं चेव संपत्तीए भावओ वि, दव्वओ वि । (घ) चरिम भंगो पुण सुनो।
-दशवै. हारी. वृत्ति
२. (क) अदत्तदुवाए इत्थीयाए बला परि जमाणीए दव्वओ मेहुणं, नो भावओ । (ख) श्री अमर भारती अक्टूबर-नवंबर १९८४ में प्रकाशित 'द्रव्य-भाव-चतुर्भगी' शीर्षक लेख
से, पृ. १२, १४
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