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कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
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भाव, अध्यवसाय या परिणाम से ही बन्ध और मोक्ष
जैन जगत् में एक सूत्र सर्वत्र प्रचालित है- “परिणामे बन्धः - अर्थात् - परिणाम से- अध्यवसाय से कर्मबन्ध होता है। 'योगसार' में भी कहा गया है- परिणाम से ही जीव को (कर्म) बन्ध कहा है तथा परिणाम से ही मोक्ष कहा है। 'धवला' में भी इसी दृष्टि से कहा गया है - कर्म का बन्ध शुभ व अशुभ परिणामों से होता है। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः - 'मन ही मनुष्यों के (कर्म) बन्ध और मोक्ष का कारण है'; इस उक्ति का तात्पर्यार्थ भी व्यञ्जना - लक्षणा के अनुसार- 'मन के शुभाशुभ परिणाम अथवा अध्यवसाय होता है। 'प्रवचनसार' में इसे ही स्पष्ट करते हुए कहा गया है-जीव के पर के विषय में शुभपरिणाम पुण्य (पुण्यबन्धकारक ) हैं, और अशुभ! परिणाम पाप (पापबन्धकारक ) हैं। शुभ और अशुभ से भिन्न आत्म-परिणाम ( जो अन्यगत न हों) सिद्धान्त में दुःखक्षय का कारण हैं। अध्यवसाय का दूसरा नाम 'भाव' भी है। गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) में चेतन के परिणाम को 'भाव' कहा है। पंचास्तिकाय में चित्त से समुत्पन्न परिणाम (विकार) को 'भाव' कहा है। '
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गंगा की शुभ-अशुभ-शुद्ध धारावत् कर्मबन्ध-धाराएँ भी त्रिविध
जिस प्रकार गंगा नदी के मूल स्रोत हिमालय से निर्गमन शुद्धधारा के रूप में होता है, परन्तु बाद में उसके साथ कहीं-कहीं वनौषधियाँ मिलने से वह शुद्धधारा विकृत तो होती है, परन्तु वह धारा शुभ ही कहलाती है, अशुभ नहीं। इसी प्रकार आगे चलकर उस 'नदी के साथ गंदे नालों, गटरों के गंदे-मैले पानी एवं कूड़ा कर्कट के मिलने से वही धारा अशुभ कहलाती है। इसी प्रकार मूल में आत्मा का अध्यवसाय. शुद्ध होता है, वह मोक्ष का - कर्म-क्षय का कारण होता है, अथवा वह ऐर्यापथिक रूप शुद्ध कर्म ( अबन्धक कर्म) रूप होता है । परन्तु कर्मों से बद्ध आत्मा के अप्रशस्त राग-द्वेष- कषायादिरूप अशुभ परिणामधारा के मिलने के कारण वह अध्यवसाय भी अशुभ हो जाता है, और वह अशुभ कर्मबन्ध का कारण बन जाता है। किन्तु प्रशस्त रागादि परिणामों की धारा के मिलने से वह अध्यवसाय भी शुभ हो जाता है, तथा शुभकर्मबन्ध का कारण बनता है। 'धवला' में (अशुभ) परिणाम के विषय में पृच्छापूर्वक समाधान किया गया है- 'परिणाम क्या है? मिध्यात्व, असंयम और कषायादि को परिणाम कहते हैं । '२
१. (क) परिणामे बंधु जि कहिउ, मोक्खं वि तह जि वियाणि । (ख) कम्मबंधो हि णाम सुहासुह-परिणामेहिंतो जायदे । (ग) सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावत्ति भणियमण्णेसु । परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खय-कारणं समये ॥ (घ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. ३, पृ३० (ङ) भावश्चित्तत्थ उच्यते । (च) भावश्चित्तपरिणामः ।
२. को परिणामो? मिच्छत्तासंजम कसायादो ।
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- योगसार यो. १४ -धवला १२/४/२/८/३/२७९
- प्रवचनसार मू. १८१
- प. प्र टीका १/१२१
- गो. जी. (जी प्र. ) १६५ / ३२१/६ -धवला १५/१७२/७
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