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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ४५ अमूर्त आत्मा के साथ मूर्त कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध : ऐसे भी एक अन्य युक्ति के द्वारा भी जैनकर्मविज्ञान विज्ञों ने अनेकान्त दृष्टि से समाधान दिया है कि आकाश अमूर्त है-अरूपी है, फिर भी घट, मठ आदि के साथ उसका सम्बन्ध होता है और लोकव्यवहार में कहा जाता है-यह घटाकाश है, यह मठाकाश है। इसी प्रकार अमूर्त आत्मा के साथ भी मूर्त कर्मपदगलों का सम्बन्ध होता है। यद्यपि जीव और कर्मपुद्गल दोनों भिन्न-भिन्न स्वभाव के हैं, फिर भी परस्पर सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं; एक माध्यम के द्वारा। वह माध्यम है-शुभाशुभ अध्यवसाय, भाव या परिणाम। इसे स्पष्टतया यों समझिए-जीव (आत्मा) अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक पदार्थों के आश्रय से राग-द्वेषादि युक्त मूर्त परिणाम या भाव करता है और वह भी मूर्त बन जाता है। ज्यों ही किसी पदार्थ को देखकर जीव में राग-द्वेष या कषाय के परिणाम आए त्यों ही अमूर्त जीव मूर्त बन जाता है, और दोनों (जीव और कर्मपुद्गल) का सम्बन्ध या बन्ध स्थापित हो जाता है।
एक उदाहरण से इस तथ्य को समझ लें-एक व्यक्ति पचास मंजिली बिल्डिंग पर चढ़ा। अगर वह उस बिल्डिंग को देखकर केवल ज्ञाता-द्रष्टा बना रहे, मन में किसी भी प्रकार का अच्छा-बुरा, प्रिय-अप्रिय का भाव न लाए, वहाँ तक तो वह अपने आपे में है, किन्तु ज्यों ही उसने उक्त बिल्डिंग को देखकर अच्छाई-बुराई, प्रियता-अप्रियता की छाप मन अथवा वचन से उस पर लगाई कि वह कर्म के साथ बँध गया।'
कर्म मूर्त है, इसमें क्या प्रमाण ? - अब एक और प्रश्न 'जयधवला' टीका में कर्म के मूर्त होने के सम्बन्ध में उठाया गया है। चूंकि आत्मा की तरह कर्म भी छद्मस्थों (अल्पज्ञों) के लिए नेत्रादि इन्द्रियगोचर नहीं होता। यदि कर्म मूर्त है तो नेत्रादि द्वारा प्रत्यक्ष होना चाहिए। अतः प्रश्न उठाया गया है-कर्म मूर्त है, यह कैसे जाना जाए ? इसका समाधान यह है कि यदि कर्म को मूर्त न माना जाए तो मूर्त औषध के सम्बन्ध से परिणामान्तर की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए। अर्थात्-रुग्णावस्था में मूर्त औषध के ग्रहण करने से रोग के कारणभूत कर्मों की उपशान्ति देखी जाती है, वह नहीं बन सकेगी। औषध सेवन से परिणामान्तर की प्राप्ति असिद्ध नहीं है, क्योंकि परिणामान्तर के अभाव में ज्वर, कुष्ठ तथा क्षय आदि रोगों का निवारण नहीं बन सकता। अतः परिणामान्तर की प्राप्ति होना, कर्म का मूर्तत्व सिद्ध करता है। ___ अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-कर्म मूर्त है, क्योंकि उसका फल मूर्तद्रव्य के सम्बन्ध से अमुभवगोचर होता है। जैसे-चूहे के काटने से उत्पन्न हुआ विष। चूहे के काटने से शरीर में जो शोथ (सूजन) आदि विकार उत्पन्न होता है, वह इन्द्रियगोचर होने से मूर्तिमान् है। इसका कारण उसका मूल कारण-विष भी मूर्तिमान् होना चाहिए। इसी १. आत्म-तत्त्व -विचार से भावांशग्रहण, पृ. २७७
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