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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ५१ वह जब तक संसारावस्था में रहता है, तब तक वह कभी सर्वथा कर्मरहित नहीं होता। आचार्य पूज्यपाद ने 'कर्मणो योग्यान् पुद्गलान्' इस तत्वार्थ गत सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है- “पूर्वजन्म के बद्धकर्म के कारण जीव कषाय युक्त होता है, और कषायों के कारण कर्म आते हैं और बंधते हैं। कषाय-रहित जीवों के कर्म्बन्ध नहीं होता। अतः सिद्ध है कि जीव और कर्म का बीज और वृक्ष की तरह अनादिकालीन कार्य-कारण सम्बन्ध है। कर्म से कषाय और कषाय से कर्म, यह परम्परा बीज और वृक्ष की तरह अनादिकाल से प्रवाहित हो रही है और तब तक होती रहेगी, जब तक संसार में जीवों का अस्तित्व है।" इस प्रकार कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि सिद्ध होता है।
अन्य आचार्यों ने भी पूज्यपाद की तरह कर्म और जीव का सम्बन्ध अनादि माना है। उनका कथन है- प्राचीन कर्म प्रतिक्षण फल देकर आत्मा से पृथक होते रहते हैं और नवीन कर्म आत्मा के रागादि परिणामों के कारण आत्मा के प्रदेशों से बंधते जाते हैं। तत्वार्थ वार्तिक में कहा है- "जिस प्रकार भण्डार से पुराने चावल निकाल लिये जाते हैं और नये भर दिये जाते हैं, उसी प्रकार अनादि कार्मण शरीर-भण्डार में कर्मों का आना-जाना होता रहता है।" पंचाध्यायीकार भी आत्मा और कर्म के बन्धरूप सम्बन्ध को अनादि सिद्ध करते हुए कहते हैं - अग्नि की स्वाभाविक उष्णता की तरह आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि होना स्वतः सिद्ध है। अतः इनका सम्बन्ध किसने और कब किया? इस प्रकार के प्रश्न ही निरर्थक हैं । '
संस्कार के कारण ही अनादिकाल से कर्म बाँधते हैं
निष्कर्ष यह है कि कर्म-युक्त आत्मा के ही कर्म चिपटते- बंधते हैं, कर्मरहित आत्मा के नहीं। संसारी आत्मा वीतराग न हो तो, रागद्वेष करती रहती है। रागद्वेष के करने से आत्मा में एक प्रकार का ऐसा संस्कार पड़ जाता है, जिससे फिर दुबारा राग-द्वेष पैदा होता है। उस दुबारा पैदा हुए राग-द्वेष से फिर राग-द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार एक चक्कर-सा चलता रहता है। इसे ही पुनः पुनः कर्मबन्ध होना कहते हैं। पुनः पुनः कर्मबन्ध का फलितार्थ है- एक संस्कार का निर्माण, एक चित्तवृत्ति का निर्माण, जो पुनः पुनः उसी राग-द्वेष-युक्त क्रिया या प्रवृत्ति को करने के लिए बाध्य होती है। जीव अपने मस्तिष्क में एक ऐसा अंकन पैदा कर लेता है कि वह अंकन पुनः पुनः उस प्रवृत्ति को करने के लिए बाधित करता है। जैसे कोई मनुष्य पानी के जाने का एक बार रास्ता बना डालता है तो फिर जैसे ही पानी आता है तो उसी रास्ते से बह जाता है। इसी प्रकार एक बार प्रवृत्ति करने से ही वह प्रवृत्ति बंद नहीं
१. (क) आत्म तत्वविचार से भावांशग्रहण, पृ. २७६
(ख) तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ८/२
(ग) तत्त्वार्थ वार्तिक ८/२/१२ (घ) पंचाध्यायी २/५३-५४
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