________________
कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ५३ उस प्रवृत्ति को करने की भावना जगती है, पूर्व-प्रवृत्ति का स्मरण होता है, फिर बार-बार उस प्रवृत्ति को दोहराता जाता है। एक बार प्रवृत्ति जिसने करली, उसने अपने पर कर्म का बन्धन डाल लिया। यह ऐसा बन्धन है कि फिर उस प्रवृत्ति से मुक्त होना उसके वश की बात नहीं रहती। वह सहज नहीं, जटिल बात हो जाती है। एक बार भी यदि पूर्वकृत कर्म-वश किसी इष्ट-अनिष्ट विषय, व्यक्ति या पदार्थ के प्रति राग-द्वेष या कषाय किया कि उसकी अधीनता उसने स्वीकार कर ली। फिर उसके लिए न करना आसान नहीं रहता। एक बार जो मार्ग पड़ जाता है-पगडंडी बन जाती है, फिर उसे मिटा पाना सरल नहीं होता।
अनादिकालीन कर्मबन्ध की प्रक्रिया नशीली चीजों के व्यसन की बात तो दूर रही, जिन लोगों को भोजन में तेज लाल मिर्च डालकर चटपटा खाने की आदत पड़ जाती है, उसके खाने से स्वास्थ्य की हानि होने पर भी उसका खाना नहीं छोड़ते। तेज मिर्च से उनकी आँखे दुखती हैं, कड़कती हैं। वे तड़फते हैं, चिल्लाते हैं, और जानते भी हैं कि तेज मिर्च खाने से यह तकलीफ बढ़ी है, फिर भी खाते हैं और कष्ट उठाते हैं। यही हाल राग-द्वेषादि, कषायादि विकारों के परिणाम से कर्मबन्ध का है। लोग जानते हैं कि इसके कारण बार-बार जन्म-मरणादि दुःख नाना गतियों-योनियों में उठाने पड़ेंगे, परन्तु फिर भी राग-द्वेषादि करके बार-बार कर्म बाँधते और भोगते हैं। इन विकारों के अपनाने से पुनः पुनः वैसा ही करने का संस्कार पड़ जाता है। बार-बार करते रहने से वे संस्कार अधिकाधिक बद्धमूल हो जाते हैं, फिर छूटने मुश्किल हो जाते हैं। यही जीव के साथ अनादिकालीन कर्मबन्ध की प्रक्रिया है, जिसके चक्कर में समस्त संसारी जीव पड़े हुए
एक जीव एक साथ सात-आठ कर्मों को कैसे बांध लेता है? एक जीव एक साथ ही पूर्वोक्त संस्कारवश अष्टविध कर्मों में से एक कर्म बाँधे, यह तो समझ में आता है, परन्तु एक समय में सात या आठ कर्म बाँध ले, यह कैसे सम्भव है? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए प्रज्ञापना सूत्र में बहुत ही युक्तिपूर्वक सामाधान प्रस्तुत किया गया है।
प्रश्न-भंते ! जीव आठ कर्म प्रकृतियों को किस प्रकार (कैसे) बाँधता है?
उत्तर-गौतम ! ज्ञानार्वरणीय कर्म का (उत्कृष्ट) उदय होने पर जीव दर्शनावरणीय कर्म को अवश्य ही प्राप्त करता-वेदता है। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शनमोहनीय कर्म को और दर्शन मोह के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त
१. (क) जैनयोग से भावांश ग्रहण पृ. ४०
(ख) भाग्य और पुरुषार्थ से भावांशग्रहण, पृ. १०-११
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org