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५४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
करता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव निश्चय ही आठ कर्म प्रकृतियों को बाँधता है।
तात्पर्य यह है - एक कर्म के निमित्त से दूसरा कर्म आता है - बंध जाता है। ? आत्मा द्वारा गृहीत एवं आकर्षित कर्म ही बद्धकर्म कहलाते हैं, शेष नहीं .
कर्मबन्ध-सम्बन्धी इतने विश्लेषण के पश्चात् भी यह शंका बनी रहती है कि कर्म स्वयं आत्मा से चिपटते हैं, अथवा आत्मा अपनी क्रिया द्वारा कर्मों को अपनी ओर खींचता है ? इसका समाधान यह है कि आकाश प्रदेश में चारों ओर नाना प्रकार के पुद्गल - परमाणु व्याप्त हैं। लेकिन वे सब कर्मयोग्य पुद्गल - परमाणु नहीं है। जितने पुद्गल-परमाणुओं की कार्मण-वर्गणा बनी होती है, वे ही कर्म-पुद्गल कहलाते हैं। वे कर्मवर्गणाएँ भी जीव के आस-पास चारों ओर ठसाठस भरी हुई हैं, अगर उन्हें जीव से चिपटना होता तो वे तुरन्त चिपट जातीं; वे ही, उतनी ही, कार्मणवर्गणाएँ आत्मप्रदेशों के चिपटती हैं, जितनी कर्मवर्गणाओं को आत्मा ग्रहण करके या योगों के द्वारा आकर्षित करके अपने आत्म प्रदेशों से मिला देता है। इन्हें ही बंधे हुए कर्म कहते हैं।
एक युक्ति द्वारा इस तथ्य को समझ लें - एक बड़े बर्तन में चाहे जितना आटा पड़ा हो, भले ही वह रोटी बनाने के योग्य हो, लेकिन उसमें से जितना आटा निकाल कर गूंधा जाएगा, और जितने आटे की रोटी बनाई जाएगी, उसे ही रोटी कहेंगे, बर्तन में पड़ा हुआ बाकी आटा आटा ही कहलाएगा, रोटी नहीं। इसी प्रकार. आकाशरूपी पात्र में कर्मरूपी आटा तो ठसाठस भरा हुआ है, लेकिन जीव उसमें से जितना कर्मरूपी आटा निकाल (खींच) कर अपने आत्म प्रदेश के साथ मिलाएगाबाँधेगा, उतना ही वह बद्धकर्म कहलाएगा शेष कर्म बद्ध कर्म नहीं कहलाएँगे । २ आत्मा ही अपनी क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा कर्मों को खींचती - चिपटाती है.
इसका फलितार्थ यह हुआ कि कर्म स्वयं आत्मा से नहीं चिपटते; किन्तु आत्मा ही अपनी क्रिया द्वारा उन्हें अपनी तरफ खींचती है और उसके पुद्गलों को अपने प्रदेशों में मिला लेती है। इसे व्यावहारिक भाषा में कहते हैं - कर्म आत्मा से चिपटे । जैसे-ट्रेन में यात्रा करने वाले लोग कहते हैं- 'अमुक स्टेशन आया।' किन्तु वास्तव में वह स्टेशन
9. कहण्णं भंते ! जीवे अट्ठ-कम्म-पगडीओ बंधइ ?
गोयमा ! णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्म णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएण दंसणमोहणिज्जं कम्म णियच्छति; दंसण-मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं, गोयमा ! एवं खलु जीवे अट्ठकम्म- पगडीओ बंधइ । - प्रज्ञापना सूत्र पद २३, उ. १, द्वार २, सू. १६६७
२. आत्म-तत्त्व - विचार से भावांशग्रहण, पृ. ३८६
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