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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ४७ या शरीर-रहित नहीं है। बल्कि शरीर के साथ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपेण संश्लेष-सम्बन्ध को प्राप्त होने के कारण वह अपने अमूर्तिक स्वभाव से च्युत हुआ उपलब्ध होता है। इसी कारण वह मूलतः अमूर्तिक न होकर कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा मान लेने पर संसारावस्था में जीव का शरीररूप (कर्मशरीररूप) मूर्तिक पदार्थ के साथ बन्ध हो जाना सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है। हाँ, एक बार समस्त शरीरों या कर्मों से मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्त अवश्य हो जाता है, फिर शरीर या कर्म के साथ उसके बन्ध का प्रश्न ही नहीं उठता।
दोनों अनुकूल द्रव्यों का ही बंध होता है छह द्रव्यों में चार द्रव्य तो तटस्थ हैं, किन्तु जीव और कर्म-पुद्गल ये दो द्रव्य बंध को प्राप्त होते हैं। ये दोनों द्रव्य भी तभी बन्ध को प्राप्त होते हैं, जब आत्मा और कर्म की परस्पर अनुकूलता हो, प्रतिकूलों का बन्ध नहीं होता । यही तथ्य पंचाध्यायी में प्रगट किया गया है। प्रवचनसार में कहा गया है-यथायोग्य स्निग्ध-रूक्षत्वरूप स्पर्श से पुद्गल-कर्मवर्गणाओं का परस्पर पिण्डरूप बन्ध होता है। राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों से जीव का बन्ध होता है। जीव के रागादि या कषायादि परिणामों का निमित्त पाकर जीव-पुद्गल का बन्ध होना जीव-(कर्म-) पुद्गल बन्ध है।२
बन्धप्राम्त दोनों द्रव्यों का परस्पर सापेक्ष होकर ही बंध होता है सारांश यह है कि बन्ध को प्राप्त सभी कर्म-परमाणुओं का तथा जीव का परिणमन एक दूसरे की अपेक्षा रखकर होता है और यही उसका विकार कहलाता है। अपने शुद्ध तथा स्वतन्त्र रूप को छोड़कर अन्य के अधीन हो जाना या अपने कार्य में अन्य की सहायता की अपेक्षा रखना ही विकार है। यह भाव अपने शुद्ध भाव से च्युत होकर किसी विजातीय प्रकार का हो जाता है। जैसे-दूध के मिठास से दही का खट्टा हो जाना। ... श्लेषरूप बंध केवल क्षेत्रात्मक ही नहीं, द्रव्यादि चतुष्टयात्मक होता है
आत्मा के साथ कर्मों के इस संश्लेष रूप बंध-विशेष में केवल क्षेत्रात्मक बन्ध ही नहीं होता, अपितु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों का बन्ध हो जाता है। इसका विशेष स्पष्टीकरण हम इसी खण्ड के अगले प्रकरण में करेंगे।३
-पंचाध्यायी २/१०२
१. .कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्रवर्णीजी) पृ.३७-३८ । २. (क) सानुकूलतया बन्धो, न बन्धः प्रतिकूलयोः । ... (ख) प्रवचनसार टीका २/८५ । ३. (क) कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) से भावांशग्रहण, पृ. ३७ ।
(ख) वही, पृ. ३६ ।
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