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४६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रकार यह जीव मणि, पुष्प वनितादि के निमित्त से सुख तथा सिंह-सदि के निमित्त से दुःख रूप कर्म के विपाक का अनुभव करता है। अतः इस सुख-दुःख का कारण जो कर्म है, उसे भी मूर्त मानना उचित है।' पुण्यपाप-बंधन में पड़ा जीव अमूर्तिक भी मूर्तिक हो जाता है ___योगसार में भी कहा गया है-पुण्य और पाप दोनों द्रव्यकर्म पौद्गलिक-मूर्तिव होते हैं। उनके परिणामस्वरूप प्राप्त सुख-दुःख फलों को, जो मूर्तिकजन्य होने से मूर्तिक होते हैं, भोगता हुआ अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक हो जाता है। अतः पुण्य-पाप के वश-बन्धन में पड़ा हुआ संसारी जीव अमूर्तिक होते हुए भी मूर्तिक हो जाता है। अत कर्मफल को भोगने वाले समस्त संसारी जीव (प्रवाहरूप से) अनादि कर्म सम्बन्ध होने के कारण मूर्तिक कहलाते हैं, और जब जीव पुण्य-पाप दोनों के बन्धन से छूट जाता है, तब स्वरूप में स्थित हुआ वह स्वयं अमूर्तिक हो जाता है।२। जीव संसारी अमूर्तिक न होकर, मूर्तिक ही है ।
कर्मसिद्धान्त-मर्मज्ञ जिनेन्द्रवर्णी जी ने जीव-(कर्म-)पुद्गल-बन्ध का विश्लेषण करते हुए कहा है-जो यह शंका उठाते हैं कि अमर्तिक जीव के साथ मूर्तिक (कर्म-) पुदगल का बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ जिस अमूर्तिक द्रव्य की बात चलती है, वह वास्तव में आकाशवत् सर्वथा अमूर्तिक नहीं है। जिस प्रकार घी नामक पदार्थ मूलतः दूध में उपस्थित होता है, परन्तु एक बार घी बन जाने के पश्चात् उसे पुनः दुग्धरूपेण परिणत करना सम्भव नहीं है। अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलतः पाषाण के रूप में उपलब्ध होता है। परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे पुनः किट्टिका के साथ मिलाया जाना असम्भव है। इसी प्रकार जीव (आत्मा) नामक पदार्थ मूलतः शरीर में उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों से सम्बन्ध छूट जाने पर पुनः इसका शरीर के साथ बँध जाना असंभव है। इसी पर से यह जाना जाता है कि घी तथा स्वर्ण की भाँति जीव मूलतः अमूर्तिक
१. (क) तं पि मुत्तं चेवा तं कध णव्वदे? मुत्तोसह-संबंधेण परिणामान्तर-गमणण्णहाऽणुववत्तीदो। ण
च परिणामांतर-गमणमसिद्ध। तस्स तेण विणा जर-कुट्ठक्खयादीण विणासाणुववत्तीए परिणामान्तर-गमण-सिद्धिदो।
-जयधवलाटीका १/५७ (ख) मूर्त कर्म मूर्त-सम्बन्धेनानुभूयमान-मूर्तफलत्वादाखु-विषवत् । -अमृतचन्द्राचार्य (ग) जहाकम्मस्स फल, विसर्य फासेहि भुजदे नियद । जीवेण सुहं दुक्ख, तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ।।
-पंचास्तिकाय १३३ २. मूर्तो भवति भुलानः सुख-दुःखफल तयोः ।
मूर्त-कर्मफलं मूत, नामूर्तेन हि भुज्यते ॥ मूर्तो भवत्यमूर्तोऽपि, पुण्य-पापवशीकृतः । यदा विमुच्यते ताभ्याममूर्तोऽस्ति तदा पुनः ।।
-योगसार ३४, ३५
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