________________
४८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) बंधावस्था में जीव कर्म-निबद्ध, कर्म जीव से बद्ध हो जाता है
बंध की इस अवस्था का पंचाध्यायी में भी स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है-(इस बंध की अवस्था में) जीव कर्म से निबद्ध हो जाता है और कर्म जीव से बद्ध हो जाता है। दोनों का परस्पर संश्लेष होता है। उस संश्लेष और बन्धनबद्धता से तात्पर्य है कि (उदय में आने पर) कर्म अपना फलोपभोग दिये बिना आत्मा से पृथक नहीं होते। . जीव कर्मों को पराधीन करता है, वैसे कर्म भी जीव को करते हैं
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार यह जीव कों को बाँधता है, पराधीन करता है, उसी प्रकार कर्म भी जीव को बाँधते हैं, पराधीन बनाते हैं। पण्डित आशाधरजी ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है-बंध में जीव और कर्म दोनों की स्वतंत्रता का परित्याग होता है। दोनों परवश हो जाते हैं।' बंध के ये उभयविध रूप ___ बंध के इन उभयविध रूपों को एक श्लोक के द्वारा वे अभिव्यक्त करते हैं"जिस परिणति-विशेष से कर्म, अर्थात् कर्मत्व-परिणत पुद्गल-द्रव्यकर्म-विपाक अनुभव करने वाले जीव के द्वारा परतंत्र किये जाते हैं-योगद्वार से प्रविष्ट होकर पुण्य-पापरूप परिणमन करके योग्यरूप से सम्बद्ध किये जाते हैं, वह बन्ध है अर्थात आत्मा के जिन रागद्वेषादि भावों से कर्मत्वपरिणत पुद्गल जीव के द्वारा परतंत्र किया जाता है, वह बन्ध है। अथवा जो कर्म जीव को अपने अधीन करता है, वह बन्ध है अथवा जीव और (कर्म) पुद्गल के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है।"२ कर्म आत्मा से ही क्यों चिपटते हैं, वस्त्रादि से क्यों नहीं ? ____ अब कर्मबन्ध से सम्बन्धित महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि “कर्म के आत्मा के साथ श्लेषबन्ध को कर्मबन्ध कहा गया, किन्तु कर्म आत्मा से ही क्यों चिपटते हैं, शरीर, वस्त्र आदि अन्य पदार्थों से क्यों नहीं ?" इसका संक्षिप्त समाधान तो यही है कि कर्मों का ऐसा ही स्वभाव है, वे जब भी चिपकेंगे (श्लिष्ट होंगे) आत्मा से ही चिपटेंगे। एक उदाहरण से इस तथ्य को स्पष्ट कर दें, जैसे-चुम्बक लोहे से ही चिपकेगा, लकड़ी या रबर से नहीं, क्योंकि उसका ऐसा ही स्वभाव है। बोतल में तेज अंगूरी शराब रखी हुई है, इसी प्रकार भांग तेज घोंटकर गिलास में रखी हुई है, किन्तु वह
-पंचाध्यायी २/१०४
१. (क) जीवः कर्म-निबद्धो हि, जीवबद्धं च कर्म तत् ।
(ख) महाबन्धो भाग-१, प्रस्तावना पृ. ४३ । २. स बन्धो बध्यन्ते परिणति विशेषेण विवशी-क्रियन्ते
कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा। स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुष यत् सुवशता प्रदेशाना यो या स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥
-अनगारधर्मामृत २/३८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org