________________
३८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
के सम्बन्ध (संयोग) के कारण वह उष्ण एवं मलिन हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव शान्त, निराकुल एवं आनन्दमय है, परन्तु परभावों या विभावों के संयोग से वह अशान्त, व्याकुल एवं दुःखमय हो जाता है। आत्मा जब अपने स्वभाव को छोड़कर परभावों या विभावों को अपनाता है, तब वह बन्धन में पड़ता है, दुःख पाता है।
दूसरा कोई द्रव्य आत्मा को सुख या दुःख नहीं देता
मनुष्य अज्ञानवश यह मानता है-कर्म, ईश्वर या अन्य कोई व्यक्ति सुख या दुःख देता है। वस्तुतः कर्म या ईश्वर कोई भी जीव को सुख या दुःख नहीं देता। अगर कर्म या ईश्वर के हाथ में अपनी स्वतंत्रता सौंप दी तो इससे बड़ी आत्मा की विडम्बना या परतंत्रता और क्या होगी ? फिर तो अपनी मुक्ति या परम स्वतंत्रता पाने के लिए जीव के द्वारा की जाने वाली रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की सारी साधनाएँ निरर्थक हो जायँगी। परन्तु ऐसा नहीं है। ' प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। कोई भी द्रव्य या ईश्वर अपने आप में किसी को सुख या दुःख नहीं देता, न ही कोई दूसरा ( पर - भाव) किसी को सुखी या दुःखी कर सकता है। सभी जीव स्वभाव में स्वतंत्र हैं, अपने सुख-दुःख के बनाने वाले स्वयं जीव ही हैं। जैसे- बिजली सामने प्रत्यक्ष दिखती है। वह न तो बोलती है, और न ही किसी को सुख या दुःख देती है। बिजली के नंगे तार के हाथ लगाने से या उसके साथ छेड़छाड़ करने से वह पकड़ लेती है, प्राण भी हरण कर लेती है। इसमें बिजली का कोई अपराध नहीं, वह तो तटस्थ है। बिजली को किसी के प्रति राग या द्वेष नहीं। इसके तार में करेंट है। बिजली को कोई छूता है, तो वह झटका लगा देती है, किन्तु कोई व्यक्ति अगर लकड़ी या प्लास्टिक पर खड़ा है तो बिजली उसे छोड़ देगी। यह बिजली का पक्षपात नहीं, किन्तु उसका स्वभाव है। और व्यक्ति का विवेक है।
क्या बिजली की तरह कर्म भी पक्षपाती है ?
इसी प्रकार गहरे पानी में अगर साधु भी खड़ा रहेगा, तो वह माफ नहीं करेगा, वह उसे बहा ले जायेगा। पानी तटस्थ है। वह सोने को भी बहा ले जाता है, और मिट्टी को भी। वह मुर्दे को भी बहा ले जाता है, जिंदे को भी। इसमें पानी का कोई अपराध या पक्षपात नहीं, यह तो उसका स्वभाव है। ऐसे समय में न तो बिजली को गाली दी जा सकती है और न ही पानी को। क्योंकि पानी या बिजली का कोई दोष नहीं। इसी प्रकार मनुष्यों को कर्म जिलाता है, मारता भी है, सुख भी देता है, दुःख भी। कर्म किसी को मन्दबुद्धि बना देता है, किसी को महाविद्वान् । वह किसी को राजा,
१. तुलना करें
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्र-ग्रथितो हि लोकः ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org