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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ३९ किसी को रंक, किसी को तिर्यंचगति का और किसी को नरकगति का, तथा किसी को मनुष्यगति का और किसी को देवगति का मेहमान बना देता है। क्या इसमें कर्म का किसी के प्रति पक्षपात या अन्याय है और किसी के प्रति आकर्षण और स्नेह है? ऐसा भी कुछ नहीं है। जैसे जल, लोहा, जमीन आदि को छूता हुआ मनुष्य बिजली को छू ले तो बिजली खींच लेती है। इसी प्रकार मनुष्य भी किसी भी क्रिया या प्रवृत्ति को करता है, तो तुरंत ही कर्मवर्गणा के पुद्गल आकर्षित होकर चले आते हैं और राग-द्वेष या किसी भी कषाय का स्पर्श होते ही आत्मा कर्म के साथ बँध जाती है। '
कर्म कब चिपटता है, कब नहीं
कर्म स्वयं किसी को सुख-दुःख नहीं देता, न ही वह जीव से स्वतः चिपटता है। परन्तु आत्मा अपने स्वभाव को भूलकर जब किसी वस्तु, व्यक्ति या भाव को लेकर मन, वचन या काया से प्रवृत्ति या क्रिया करता है, तो तुरंत ही कर्मों- कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आगमन - आकर्षण हो जाता है। परन्तु केवल कर्मों के आगमन मात्र से वह आत्मा के साथ चिपटता या बँधता नहीं। केवल आता है, और आत्मा के साथ प्रदेश रूप से पहले समय में प्रदेशबन्ध से बँधकर, दूसरे-तीसरे समय में ही आत्मा से अलग हो (झड़ जाता है । परन्तु कर्म के आगमन के साथ ही अगर अच्छे-बुरे, प्रीति-अप्रीति, राग-द्वेष, मोह-द्रोह आदि तथा कषाय आदि विकारों की चिकनाहट लगी कि कर्मबन्ध हुआ। २
आत्मा में बिगाड़ आता है, विजातीय वस्तु के संयोग से
अगर आत्मा अकेला होता तो शुद्ध स्वरूपी होता, चिदानन्द अवस्था में होता और अनन्त अव्याबाध सुख का उपभोग करता होता । परन्तु वह अकेला नहीं, विजातीय कर्म-पुद्गल से सम्बद्ध है। कर्म और आत्मा दोनों परस्पर मिलने से अशुद्ध हो जाते हैं। दोनों अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं रहते । ३
विजातीय वस्तु के साथ मिल जाने से मूल वस्तु में बिगाड़
किसी भी वस्तु में बिगाड़ तभी होता है, जब कोई विजातीय वस्तु उसके साथ मिल जाती है। दूसरी वस्तु (पर-पदार्थ) के मिले बिना किसी भी पदार्थ में अपने-आप विकृति नहीं आती। शरीर में भी रोग तभी उत्पन्न होते हैं, जब कोई पर-पदार्थ (Foreign Matter विजातीय पदार्थ) आ घुसता है। घड़ी भी ठीक चलती - चलती तभी रुकती है, या गलत चलने लगती है, जब उसके पुर्जों में कुछ मैल या कचरा घुस जाता है। पुर्जों को आसानी से चलते रहने के लिये घड़ी में सफाई करने वाले
१: मुक्ति के ये क्षण (ब्र.कु. कौशलजी) से भावांश ग्रहण
२. आत्म-तत्त्व - विचार से भावांश ग्रहण
३. वही, भावांश ग्रहण
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