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कर्मबन्ध : क्यों, कब और कैसे ? ४१ भावों के निमित्त से पृथक्भूत कार्मण-पुद्गल ज्ञानावरणीयादि कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीव (आत्मा) और कर्म-पुद्गल दोनों ही अशुद्ध हो जाते हैं, वे अपने शुद्ध रूप में नहीं रहते । '
जीव और पुद्गल दोनों के सम्बन्ध से तीसरी वस्तु का निर्माण जीव (आत्मा) और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं। दोनों का अपना अलग-अलग स्वभाव है। आत्मा (जीव ) का अपना स्वभाव ज्ञानमय है, और पुद्गल का वर्णादि चतुष्टयमय । न ही जीव अपने-आप में अपना स्वभाव बदलता है, और न ही कर्म पुद्गल । परन्तु जीव जब विभाव परिणामों को लेकर मन-वचन-काया से कर्म-पुद्गलों को खींचता है, तब उनके साथ रागद्वेष - कषायादि विभाव परिणामवश कर्मों की जो अवस्था विशेष होती है, उसे ही बन्ध कहा जाता है। जिस प्रकार हल्दी अलग है और चूना अलग है। किन्तु हल्दी और चूना दोनों के सम्बन्ध से एक तीसरी चीज बन जाती है। अर्थात् दोनों के मिलाने से लाल रंग बन जाता है। वह लालिमा जिस प्रकार एक जात्यन्तर वर्ण है, जो न हल्दी में है, और न चूने में ही पाया जाता है। जैसे कि कहा हैचूना तज्यो सफेद ।
हरदी ने जरदी तजी, दोउ मिल एकहि भए, रह्यो न काहू भेद ॥
आशय यह है कि बन्ध की अवस्था में जिन दो वस्तुओं का परस्पर बन्ध्य-बन्धक- भाव उत्पन्न होता है, उन दोनों के स्व-गुणों में विकृति उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में, राग-द्वेषादि विकारी भाव न शुद्ध आत्मा (जीव) में उपलब्ध होते हैं, और न ही जीव (आत्मा) से असम्बद्ध पुद्गल में उपलब्ध होते हैं। अर्थात् जीव (आत्मा) में रागादि भाव न शुद्ध जीव के हैं, और न शुद्ध पुद्गल के । इसीलिए कहा गया- ' -'बन्धोऽयं द्वन्द्वतः स्मृतः ' - यह बन्ध दो ( जीव और पुद्गल उभय) से उत्पन्न होता है। एक द्रव्य का बन्ध नहीं होता। पंचाध्यायी में भी कहा गया है
अन्य (द्रव्य) के गुणों के आकार रूप परिणमन होना बन्ध है। इस परिणमन के उत्पन्न होने पर अशुद्धता आती है। उस समय उन दोनों बद्ध होने वालों के स्वगुणों का विपरिणमन होता है। अर्थात् दोनों ही अपने-अपने गुणों से च्युत होते हैं । २
१. अयस्कान्तोपलाकृष्ट-सूचीवत् तद्वयोः पृथक् ।
अस्ति शक्तिर्विभावाख्या, मिथो बन्धाधिकारिणी ॥ ४५ ॥ जीव-भाव-विकारस्य हेतुः स्याद् द्रव्यकर्म तत् । तद्धेतुस्तद्विकारश्च यथा प्रत्युपकारकः ॥ १०९ ॥ तनिमित्तात्पृथक्भूतोऽप्यर्यः स्यात्तनिमित्तकः ॥ ११० ॥ २. (क) महाबन्धो, भा. १ की प्रस्तावना से, पृ. ४२ । (ख) बन्धः परगुणाकारा, क्रिया स्यात् पारिणामिकी | तस्या॑सत्यामशुद्धत्वं तद्द्द्वयोः स्वगुण-च्युतिः ॥
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-पंचाध्यायी
- पंचाध्यायी २/१३०
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