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३६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मवन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) का कर्म के प्रदेशों के साथ परस्पर मेल (श्लेष) होना बन्ध है।" आत्मा को अपने स्वभाव में जाने से कर्मबन्ध रोकता है।' आत्मा अपने विकारी भावों-विभावों से कर्म बांधता है। कर्मबन्ध के फल को जानकर उनसे बचो।
कर्मबन्ध के कारण ही जीव चौरासी लक्ष जीवयोनियों में बार-बार जन्म-मरण करता है, वहाँ जैसे-तैसे जीता है, सुख की इच्छा होते हुए भी दुःख के कटघरे में जीता है। मरने की तनिक भी इच्छा न होते हुए भी कर्मबन्ध के फलस्वरूप जबरन शीघ्र मर जाता है। मरने के बाद भी ऐसे-ऐसे नये-नये शरीर धारण करने पड़ते हैं, जिनसे घृणा हो ऐसे स्थान में रहना पड़ता है, जहाँ धर्म और ज्ञान की जरा भी किरण नहीं पहुँचती। कर्मबन्ध के कारण आत्मा अपने निजी गुणों से वंचित रहता है, वे गुण कुण्ठित और आवृत हो जाते हैं। कर्मबन्ध के कारण ही आत्मा के आठों गुण दबे हुए हैं। इसलिए कर्मबन्ध का वास्तविक स्वरूप पहचान कर कर्मबन्ध के कारणों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।२
१. (क) वीतरागता : एक समीचीन दृष्टि (डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री) से भावांश ग्रहण पं. २२८ (ख) बन्धातीत-शुद्धात्मतत्त्वोपलम्म भावना-व्युत-जीवस्य कर्म-प्रदेशः सह श्लेषो बन्धः
___-वृहद्रव्यसंग्रह गा. २८ टीका २. रे कर्म तेरी गति न्यारी (विजयगुणरल सूरीजी) से भावांश ग्रहण, पृ. ४
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