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३२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
कुछ विशेषता है। मिल-जुलकर एकाकार अखण्डरूप बन जाना बन्ध कहलाता है, जो संश्लेष- सम्बन्धस्वरूप होता है। यह सम्बन्ध इतना घनिष्ठ होता है कि बन्ध को प्राप्त मूल पदार्थ जड़ हो, या चेतन अपने-अपने पृथक्-पृथक् शुद्ध स्वरूप से च्युत होकर. कोई विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। धवला में बन्ध का ऐसा ही लक्षण दिया गया है। उदाहरण के रूप में - ऑक्सीजन और हाईड्रोजन, इन दो गैसों को ले लीजिए। ये दोनों ही वायु-स्वरूप हैं और दोनों ही आग को भड़काने की क्षमता रखती हैं। परन्तु परस्पर बन्ध को प्राप्त हो जाने पर न तो ऑक्सीजन रहती है और न ही हाईड्रोजन, एक तीसरा ही नया पदार्थ, अर्थात् जल बन जाता है, जिसमें अग्नि को भड़काने के बजाय उसे बुझाने की शक्ति है। इस प्रकार के बन्ध को श्लेष -बन्ध कहते हैं। समस्त रासायनिक प्रयोगों का आधार ऐसा ही बन्ध है। सोना तथा ताँबा मिलकर 'एक अखण्ड पिण्ड बन जाता है, जो न तो शुद्ध सोना रहता है, और न शुद्ध ताँबा । एक तीसरी विजातीय धातु बन जाती है। इसी प्रकार पीतल, कांसा आदि धातुओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए । '
दोनों का संश्लेष-सम्बन्ध होने पर स्व-स्वभाव को नहीं छोड़ते
इस पर से कोई यह न समझ बैठे कि आत्मा और कर्मपुद्गल, अथवा ऑक्सीजन - हाईड्रोजन आदि दोनों पदार्थ अपने स्वभाव को सर्वथा छोड़ देते हैं। दोनों का परस्पर संश्लेषण बन्ध हो जाने पर भी इनकी स्वतंत्रता और स्वभाव अवश्य बने रहते हैं, वे अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाते हैं । स्वतः अथवा किसी रासायनिक प्रयोग द्वारा पृथक हो जाने पर उनका वह मूल स्वभाव पुनः व्यक्त या आविर्भूत हो जाता है। जैसे - जल को प्रयोग विशेष द्वारा फाड़ने पर पुनः वे ऑक्सीजन तथा हाईड्रोजन बन जाते हैं। इसी प्रकार ताँबा - मिश्रित स्वर्ण को शोधने पर सोना तथा ताँबा पुनः अपने-अपने शुद्ध रूप में आ जाते हैं। इसी प्रकार जीव भी कर्मों के साथ पूर्वोक्त प्रकार से बँधकर भी संवर- निर्जरा की प्रक्रिया से पृथक्-पृथक् हो जाने पर दोनों अपने-अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित हो जाते हैं। बन्ध-अवस्था में ही उनका यह विजातीय रूप रहता है, पृथक् हो जाने पर पुनः अपने स्वभाव में आ जाते हैं । २
आत्मा और कर्मपुद्गल : बन्ध की अपेक्षा से अभिन्न, लक्षण की अपेक्षा से भिन्न
'पंचास्तिकाय' में इसी तथ्य को स्पष्टतया समझाया गया है- "कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ श्लिष्ट होकर विशिष्ट शक्ति के परिणमन से (दूध और पानी की तरह एक रूप में) स्थित हो जाना बन्ध है।” इसका तात्पर्य भी वही है, जिसे हम पिछले पृष्ठों में स्पष्ट कर आए हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो - 'लक्षण की अपेक्षा से जीव
१. (क) जैन सिद्धान्त ( जिनेन्द्रवार्णी) से, पृ. ३४-३५
(ख) बंधो णाम दुभाव - परिहारेण एयत्तावत्ती । '
२. जैन सिद्धान्त से पृष्ठ ३५-३६
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- धवला, पु. १३, पृ. ३४७
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