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२८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
कर्मबन्ध आत्मा को पराधीन बनाकर नाना दुःखभागी बनाता है
इसीलिए तत्त्वार्थवार्तिक और आप्त-मीमांसा वृत्ति में कर्मबन्ध का लक्षण किया गया है- 'जो आत्मा को परतंत्र कर देता है, अथवा आत्मा का परतंत्रीकरण बन्ध है अथवा कर्म के द्वारा जीव को परतंत्र कर देना, बन्ध है ।' 'बंध- विहाणे' में इसका निर्वचन करते हुए कहा है- जो बांध देता है, आत्मा को अस्वतंत्रता - परतंत्रता में डाल देता है, वह (कर्म) बन्ध है । ' पराधीनता सबसे बड़ा दुःख है। गोस्वामी तुलसीदास की शब्दावली में "पराधीन सपनेहु सुख नांही" इस कहावत के अनुसार कर्मबन्ध वे कारण कर्माधीन बना हुआ जीव बार-बार जन्म, जरा, रोग, मृत्यु आदि के नाना दुः भोगता रहता है। बाह्यबन्ध के कारण तो व्यक्ति एक जन्म, वह भी अमुक अवधि तव ही दुःख पाता है, किन्तु कर्मबन्ध के कारण जन्म-जन्मान्तर में विविध गंतियों औ योनियों में भटक कर रोग, शोक, भूख-प्यास, इष्टवियोग- अनिष्टसंयोग आदि कारण नाना दुःख, संकट, चिन्ता, उद्विग्नता, बेचैनी, हैरानी, आधि, व्याधि, उपाधि आदि पाता रहता है। इसीलिए 'प्रमाण-संक्षेप' की स्वोपज्ञवृत्ति में कहा गया- चेत ( आत्मा ) को हीन स्थान में पहुँचा देना (कर्म) बन्ध है| २ अर्थात् आत्मा जब अप स्व-भाव को भूलकर रागद्वेषादि या कषायादि विभाव परिणामों को करता है, तब क उसे शीघ्र ही उच्च स्थान से गिराकर हीन स्थान में पहुँचा देता है। आप्तपरीक्षा में। इसका आशय प्रगट किया गया है कि जैसे हस्तिशाला में बंधा हुआ हाथी परतंत्र रहता है, इसी प्रकार संसारी जीव पराधीन होने के कारण कर्मों से बंधा 'हुआ है।
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संसारी जीव पराधीन इसलिए है कि उसने हीन स्थान को ग्रहण किया है। जैसे कोई सात्त्विक एवं पवित्र ब्राह्मण अपना घर छोड़कर वेश्यागृहरूप निन्द्य स्थान स्वीकार करता है, क्योंकि उसकी कामवासना के तीव्र वेग ने उसे पराधीन बना दिया है। इसी प्रकार संसारी जीव (आत्मा) ने शरीररूप हीनं स्थान को आवास स्थल बना लिया। संसारी जीव का शरीर हीन स्थान इसलिए है कि वह जन्म-मरणादि अनेक दुःखों का कारण है। यदि आत्मा सर्वथा स्वतंत्र होता तो वह मल-मूत्र - भण्डाररूप इस महान् अशुचि भण्डार, घृणित एवं अपावन शरीर को कदापि अपना आवास स्थान न बनाता। कर्मबन्ध ऐसा प्रबल होता है कि वह जीव को बार-बार शरीर धारण कराता है। शरीर में रहते हुए वह मोहासक्त होकर कर्मबन्ध के कारण विवश हो जाता है । ३
9. (क) बध्यतेऽस्वतंत्री क्रियते, अस्वतंत्रीकरणं वा बन्धः। (ख) बंधो नाम कर्मणाऽस्वतंत्रीकरण ।
(ग) बध्नाति आत्मानं परतंत्री करोति, अस्वतंत्रतां प्राप्यतीति बन्धः ।
२. (क) चेतनस्य हीनस्थान प्रापण बन्धः।
(ख) आप्तपरीक्षा ( आ. विधानन्दि स्वामी) पृ. १
३. रे कर्म तेरी गति न्यारी (गुणरत्न सूरीश्वरजी म.) से पृ. ३
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- तत्त्वार्थवार्तिक १/४/१०
-आप्तमीमांसा (वसु. वृ.) ४०
- बंधविहाणे १
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- प्रमाण संक्षेप (स्वो वृ.) ६६
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