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दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध २३ किसने सिखाया? उन नागरिकों के पूर्वबद्ध कर्मों ने ही तो उसे प्रेरित किया, उसे ऐसा कुकृत्य करने के लिए ।
सुडौल शरीर वाले मस्त पहलवान 'गामा' का शरीर सहसा क्यों सूख गया ?
भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री सदैव राष्ट्रहित एवं परोपकार में रत रहते थे, उनका ताशकंद में अकस्मात् कैसे हार्टफेल हुआ? कोई भी उपचार उस समय काम न आया, इसका क्या कारण था? उनके पूर्वकृत अशुभ कर्मबन्ध को ही कारण मानना होगा।
अपनी कला में दत्तचित्त होकर जनता को मंत्रमुग्ध करके सत्पथ पर लाने के इच्छुक संगीत सम्राट ओंकारनाथ को दुःख दारिद्र्य का अनुभव क्यों करना पड़ा? ये परे खेल पूर्वकृत अशुभकर्मबन्ध के ही हैं।
इनके विपरीत पूर्वकृत शुभकर्मबन्ध का खेल देखिये । उसके कारण महान् चित्रकार बनने की तमन्ना वाला विद्यार्थी नेपोलियन एक दिन फांस का सम्राट् कैसे
बन गया ?
एक दिन लकड़ियाँ फाड़ने वाला बिलकुल आशाहीन लड़का जर्मनी का भाग्य-विधाता हर हिटलर कैसे बन गया ? तथा एक बार तो ब्रिटेन और अमेरिका जैसे महान् राष्ट्रों को भी प्रकम्पित कर देने वाली प्रचण्ड शक्ति इसमें कहाँ से आ गई? उसके पूर्वकृत शुभकर्मबन्ध के कारण ही ऐसा हुआ ? परन्तु इन दोनों ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके लाखों निर्दोष मनुष्यों को मौत के घाट उतार कर अशुभ - कर्मबन्ध कर लिया, जिसका फल भी उन्हें इसी जन्म में मिल गया। इनकी प्रचण्ड सामर्थ्य चूर-चूर हो गयी। इन विश्व के मांधाताओं की सारी बाजी उस बद्ध अशुभकर्म ने ही तो धूल में मिला दी थी ! १
दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता, निमित्त दूसरे-तीसरे हो सकते हैं, परन्तु मूल कारण तो पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मबन्ध को ही मानना होगा।
निष्कर्ष यह है कि इन सब दुःखों का मूल कारण कर्मबन्ध को ही मानना पड़ेगा । कर्मबन्ध दुःख का कारण इसलिए बनता है कि आत्मा अनात्मा से, चेतन जड़ से, देही देह से संयुक्त बद्ध हो जाता है। नयचक्र वृत्ति में बन्ध का लक्षण भी यही दिया गया है-'आत्मप्रदेशों और पुद्गलों का परस्पर मिल जाना, बन्ध है । '२ वस्तुतः यही दुःख है। क्योंकि समग्र दुःखों का कारण शरीर को ही माना गया है।
१. जैनदर्शनमा कर्मवाद से भावांश ग्रहण
२. अप्पा-पएसामुत्ता, पुग्गलसत्ती तहाविहा या ।
मिल्लता बंधो खलु होइ णिच्चइ ॥
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- नयचक्र वृ. १५४
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