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दुःख-परम्परा का मूल : कर्मबन्ध २५ स्थानांग सूत्र में एक प्रश्नोत्तरी है-“दुःख (कर्मबन्ध) किसने किया? उत्तर में कहा गया-जीव ने ही प्रमादवश दुःख किया है।" भगवतीसूत्र में तो स्पष्ट कहा हैदुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं।"१ उत्तराध्ययन सूत्र में भी इसी स्वर को मुखरित किया गया है-"जितने भी अविद्यावान् पुरुष हैं, वे अपने लिए दुःख (कर्मबन्ध) उत्पन्न करते हैं। और फिर स्वकृत दुःख के फलस्वरूप अनन्त संसार में दिशाविहीन (लुप्त) होकर प्रभ्रमण करते रहते हैं।"२ कर्मों से मुक्ति ही सर्वदुःखों से मुक्ति है
निष्कर्ष यह है कि प्रायः सभी दर्शनों ने दुःख (कर्मबन्ध) से मुक्ति अथवा शाश्वत सुख की ओर प्रस्थान करने का विधान किया है। जैन-दर्शन ने तो कर्मबन्धन को दुःख का मूल मान कर दुःखों से सर्वथा मुक्त होने या शाश्वत अव्याबाध सुख प्राप्त करने का उपाय कर्मों से सर्वथा मुक्त होना बताया है। वैषयिक सुख भी दुःखरूप कर्मबन्धक .
साथ ही वैषयिक सुखों या सांसारिक सुखों को दुःखरूप या दुःख-बीज बताया है। आत्मिक सुख को ही मोक्ष-सुख या परम आनन्द-रूप बताया है। जैसे कि 'प्रवचनसार' में कहा गया है-"जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधायुक्त, विच्छिन्न, बंध का कारण तथा विषम होने से सुख नहीं, दुःख ही है।"३ शरीर सम्बद्ध जन्मादि भी दुःख रूप : शरीर को भी दुःखरूप कर्मबन्धन का कारण इसलिए माना गया है कि उसको लेकर जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, आधि, उपाधि आदि दुःख प्राप्त होते हैं। वीतराग महापुरुषों ने उत्तराध्ययन में स्पष्ट किया है-"जन्म, जरा, मरण, रोग आदि दुःखरूप हैं। अतः आश्चर्य है कि यह संसार दुःखरूप (कर्मबन्धजनित) है, जिसमें संसारी जीव क्लेश पाते रहते हैं। इसी सूत्र में अन्यत्र बताया गया है-"जन्म-मरण को ही दुःख
कहते हैं, और कर्म (बन्ध) जन्म-मरणरूप दुःख-परम्परा का मूल हैं।" अतः इस . दुःख-परम्परा का मूल कर्मबन्ध ही स्पष्टतः सिद्ध होता है। १. (क) दुक्खे केण कडे? जीवेण कडे पमाएणं ।
-स्थानांग-३/२ (ख) अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे ।
-भगवतीसूत्र १७/५ . २. जावतऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । ___ लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणतए।।
-उत्तराध्ययन ६/१ ___३. सपर बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । ज इंदिएहिं लद्ध, त सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥
-प्रवचनसार १/७६ ४. (क) जम्म दुक्ख जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्य कीसति जतवो ॥
-उत्तरा.-१९/१५ (ख) कम्मं च ज़ाइ-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई-मरणं वयंति ॥ -वही. अ ३२, गा. ८
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