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दुःख- परम्परा का मूल : कर्मबन्ध २१ माता-पिता यथासमय उसकी चिन्ता ही चिन्ता में चल बसे। वह, उसकी पत्नी और चार बच्चे रह गए। व्यापार-धंधा स्वयं न संभालने से चौपट हो गया। पंचेन्द्रिय-विषयों की रसलोलुपता, धनिक पिता के पुत्र होने का अभिमान, मनमाना खर्च करने और मनचाही मौज करने के अधिकार का मद, और ऐसी ही कुछ बातें अशुभ कर्मबन्ध' की कारण बनीं। बद्धकर्म उदय में आया। एक समय का करोड़पति का पुत्र अब रोड़पति हो गया। दर-दर का भिखारी बन गया। उसके जिगरी दोस्त अब उससे किनाराकसी करने लगे। उसके निकट के सम्बन्धी भी उससे आँखें चुराने लगे।
आज वह निपट अकेला बनकर दीन और आर्त्तस्वर में पुकार कर भीख मांग रहा था। उस शहर को छोड़ कर, वह पैदल चलकर दूसरे शहर में पहुँचा। कई दिनों का भूखा था। सोचा- 'धनाढ्य लोगों की बस्ती में जाऊँ। वहाँ जरूर खाने को कुछ मिल जाएगा। वह पहुंच गया एक धनिक-मोहल्ले में। परन्तु धनाढ्य लोगों को दूसरों के जीवन की क्या चिन्ता थी? वे अपने वैभव-विलास में मस्त थे। उनका कुत्ता भी खूब मौज से रहता है।
धीमे कदमों से लड़खड़ाता हुआ वह एक धनिक के बंगले के द्वार पर पहुँचा । कोई भी दूसरा अपरिचित व्यक्ति अंदर न घुस जाय, इसके लिए उस धनिक ने एक आरब चौकीदार रखा था। उसे कह रखा था - " - "कोई भी हरामखोर यानी जो धनहीन हो, स्वजन न हो, उसे अन्दर न घुसने देना।" आरब चौकीदार ने उसे देखते ही कहा - " किसलिए आये हो यहाँ ? यहाँ कुछ भी न मिलेगा। चले जाओ यहाँ से !”
वह भिखारी वेषधारी मन ही मन कहने लगा- 'कहाँ जाऊँ अब ! मेरे शरीर में शक्ति और मन की धीरता खत्म हो गई है। यहाँ मैं कुछ पाने की आशा से ही आया हूँ।' वह घूमते-घूमते बहुत थक गया था। दुर्बलता और अशक्ति के कारण आँखों के सामने मौत नाचती दिखाई दे रही थी। सोचा- ऐसे जीवन की अपेक्षा तो मृत्यु ही अच्छी ! मृत्यु में शान्ति और निश्चिन्तता तो है !
मौत की परछाई की कल्पना करते ही अपने जन्म से लेकर अब तक की घटनाएँ चलचित्र की तरह उसकी आँखों के समक्ष आने लगीं। करोड़पति पिता के यहाँ जन्म ! बचपन अत्यन्त सुख-सुविधा और लाड़ प्यार में बीता ! फिर आया यौवन ! अहा ! कितना स्वच्छन्द और विलासी जीवन था वह ! प्रतिदिन नये-नये स्थानों में पर्यटन, रोजाना पिक्चर और प्रतिदिन राग-रंग !
फिर आया ४५ वर्ष का प्रौढ़वय ! वैभव का सूर्य अस्ताचल की ओर जाने लगा। सुरा, सुन्दरी, रसलोलुपत और सम्पत्ति का मौज-शौक में व्यय । इन चारों ने कौटुम्बिक, शारीरिक और मानसिक सब सुख छीन लिया। कोटिपति एकदम फटेहाल . भिखारी हो गया ! सबने तिरस्कार किया, परिजनों एवं स्वजनों से अलग-थलग ! यों सोचते-सोचते आँखों से आँसू और मुख से निःश्वास निकल पड़े !
१. वही, पृ. १ से ३ तक
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